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वो तेरह रातों से थका हुआ चाँद उस 31 दिसम्बर, 2017 की रात, जब मेरे सर पर चमक रहा था तब मेरे पैरों तले पोंडिचेरी के रॉकी बीच की चट्टानें थीं, और चारों तरफ हँसते, खिलखिलाते, नाचते हुए इंसानों की भीड़. पूर्णमासी को बस एक ही दिन कम था, लेकिन ज़मीन पर इतना उजाला था कि चाँद, सूरज की ज़रूरत ही नहीं थी. हर तरफ उत्सव ही उत्सव था. किसी को किसी की तरफ देखने की, सोचने की फुर्सत न थी.
हम, दरअसल पांडिचेरी के उस बीच पर सुबह भी हो आये थे. ऐसे ही बस वक़्त काटना था तो सोचा कुदरत से ही रु-ब-रु हो लें. रॉकी बीच पर, बालू कम और चट्टानें बहुत ज्यादा हैं. बिलकुल प्राकृतिक तरीके से सजी हुई. छोटी, बड़ी, ऊँची, नीची, एक के साथ एक हाथ से हाथ मिलाये, श्रृंखलाबद्ध, समुद्र के थपेड़ों से बिना डरे हुए, अटल, अडिग न जाने कब से वहां ऐसे ही पड़ी हुई हैं. बालू भी है, लेकिन ज़रा सा. बस, चट्टानों के किनारे और सड़क से पहले. साफ, सुथरा, शांत माहौल था. बीच का साफ़ सुथरापन और समुद्र की तरफ से आती हुई ठंडी हवाओं के साथ शाम के उत्सव की तैयारी में जुटे लोगों को देखना अपने आप में एक खुशनुमा एहसास था.
हम काफी देर तक वहाँ बैठे रहे, सोचते रहे कि अगर इसी तरह इन्सान और कुदरत, एक दूसरे का ध्यान रखें तो इस धरती की उम्र काफी लम्बी हो सकती है. इसी तरह की ख़ुशगवार सोचों के साथ, शाम को दुबारा आने के लिए, हम वहाँ से वापस हो लिए थे.
शाम का नज़ारा ही अलग था. नाच, गाना, खाना, पीना, खुशियाँ ही खुशियाँ. हर उम्र और हर तबके के लोग वहाँ 31 दिसम्बर के चाँद को डूबता हुआ देखने के लिए एकत्र थे. और हाँ कुछ डरे, सहमे, चकिताक्ष विदेशी भी थे. उनके चेहरों पर डर का भाव क्यूँ था ये मेरी समझ में नही आया. देखते ही देखते रात के 12 बज गए. सभी लोग, जाने-अनजाने, देशी-विदेशी, बच्चे-युवा-बुज़ुर्ग, एक दूसरे को हंस हंस के नव-वर्ष की बधाई दे रहे थे. ये बताना यहाँ बहुत मायने रखता है कि वहां लाखों की भीड़ थी लेकिन किसी को भी किसी से रूपये पैसे या चेन छिन जाने का या फिर लडकियों को किसी गंदे व्यवहार का कोई खतरा न था. दक्षिण भारत इस मामले में बेहद सभ्य और संस्कारी है. देश का यही एक कोना ऐसा है जहाँ हम अपने संस्कारों पर गर्व कर सकते हैं.
मन में ऐसे ही संतुष्टि के भाव लिए, सानंद हम समुद्र तट से कल फिर आने का वादा कर के एक बजे रात में वहाँ से चले. छोटी -छोटी बच्चियों से लेकर, सोने-चाँदी के आभूषणों से लदी स्त्रियाँ, जितनी निर्भयता से सड़क पर चल रही थी, हमारा आनन्द उतना ही बढ़ता जा रहा था.
अगली रात रवानगी थी, दुबारा मिलने का वादा भी निभाना था. कल का अद्भुत दृश्य अभी भी आँखों में बसा था. जाने से पहले एक बार फिर से सब कुछ आँखों में समेट लेने को इस नए साल की पहली शाम हम एक बार फिर वहीँ थे. सूरज डूबने को था. भीड़ कल से भी ज्यादा थी. शायद जो लोग देर रात तक जाग नही सकते होंगे, वो इस वक्त अपने शौक पूरे करने निकले थे. चाय, कॉफ़ी, चाउमिन, सैंडविच, नारियल पानी, फ्रूट्स, जूस, कोल्ड ड्रिंक्स, आइसक्रीम, पॉप कॉर्न, स्वीट कॉर्न, क्या नहीं था वहां.
अगर नहीं था तो सिर्फ वो. हम जिससे मिल कर अलविदा कहने आये थे.
चारों तरफ़ सिर्फ कागज़ और प्लास्टिक के कप, प्लेट, ख़ाली कैन्स, पानी बियर और व्हिस्की की असंख्य ख़ाली बोतलें, रैपर, लकड़ी और प्लास्टिक के चम्मच. क्या क्या तो नहीं था वहाँ. सड़क पर, रेत पर, चट्टानों पर और चट्टानों के बीच में पत्थरों पर सिर्फ और सिर्फ कूड़ा, कचरा.
हम स्तब्ध खड़े थे, ढूंढ रहे थे उसे जो कल यहाँ पसरा पड़ा था, खुश था हमारे साथ-साथ. पर आज वो कहीं था ही नहीं. हम चुपचाप आगे बढ़ते गए. सड़क, रेत, और चट्टानों को पार करते हुए बिलकुल वहाँ आ गए जहाँ लहरों के थपेड़े किनारों से न जाने क्या कहने के लिए, दूर से दौड़ कर आते थे और गले मिल कर, न जाने क्या क्या गिले-शिकवे, नमकीन पानी में धोकर वापस चले जाते थे.
आज चाँद पूरा था. कहते हैं पूरे चाँद की रात समुन्दर का पानी बढ़ जाता है. हम देख रहे थे, पानी धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा था. एक बहुत ही तेज़ लहर आयी और चट्टानों से टकरा कर दसियों फुट ऊपर उछल कर पूरे तट को नहला गयी. हमें अपने चेहरे पर पड़े पानी का स्वाद एकदम नमकीन सा लगा. अचानक ही सच हमें समझ में आ गया था. समुन्दर का पानी पूरे चाँद की वजह से नहीं बल्कि उसके आंसुओं की वजह से बढ़ रहा था….
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