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हुनर देखो कमाल देखो इसके हाथ का,
ये खेल इसका रात दिन का है ,दिन रात का,
यही चूल्हा यही चौका यही आंगन ड्योढ़ी,
इसी में रहती है अपने पापा की मुनिया जो थी,
कमाल करने को रखती है सिर्फ अपने दो हाथ,
न आँख कान है इसके ,और न दिल न दिमाग ,
अपने बचपन की यादों का मुरब्बा है बनाया इसने,
आज के खाने में इसके सपनों की चटनी भी थी,
ये अपने साथ डिग्री जैसी चीज़ भी कुछ लाई थी,
जो बताते थे कभी क्लास में अव्वल ये थी,
उन डिग्रियों का क्या अचार इसने डाला है ,
यही एक सबके पेट दर्द की दवा जो थी ,
घर के पिछवाड़े से पीछे भी एक सूना कोना,
वहीँ बसा ली है इसने अपनी जादू की दुनिया,
किवाड़ खुलते ही लग जाते हैं पेड़ों पर झूले,
और रचे जाते हैं हाथों पे मेहँदी के बूटे,
तितलियां फूल और जुगनू और पंछियों के पंख ,
हंसी के दौर और प्यारी सहेलियों का संग,
दुलार माँ-पापा का भाई बहनों की तकरार ,
अनोखी बस्ती बसी है उसी द्वार के पार,
सबसे छुपके छुपा के झाँक आती है एक बार,
जिनको देखे बिना युग हो गए दो चार हज़ार,
चढ़ा के द्वार पर किस्मत से भी भारी सांकल,
फिर चली आती है वापस उसी दहलीज़ में,
कुछ का है कुछ जहाँ बनाना उसको जादू से,
दो हाथ चार, आठ, सौ करेगी जादू से,
दर्द उबालेगी और राहत का बनाएगी काढ़ा,
राख अरमानो की ले, धो डालेगी बर्तन सारे,
बह चले जायेंगे वो हाथ भी फिर पानी के साथ,
उगा करते थे कभी जिन पे कांच के सपनों से पंख,
वो पंख टूट कर पड़े हैं अब जहाँ देखो,
पाँव में चुभते हैं जब भी कदम बढाती है,
एक कलम थी न तुम्हारी, उसे झाड़ू कर लो,
ओ अपने पापा की मुनिया , बुहार दो आंगन,
फेंक दो किरचें उन सपनों की और चैन से सो,
उम्मीदें, ख्वाब , हसरतें उठा के सब फेंको,
अचार , बड़ियाँ और पापड़ बनाने की खातिर,
कल सुबह फिर से मर जाना जीने की खातिर…..
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