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कहते हैं लोग प्यार पर खुद को लुटा देते हैं.पर ऐसा भी क्या कि प्यार को अपराध घोषित कर कोई किसी को लूट ही ले.
प्यार तो दो ज़िन्दगियों का मिल कर एक नयी ज़िन्दगी शुरू करने का सलीका होता है.और फिर वो दोनों तो जैसे एक दूजे के लिए ही बने थे.
सभी कहते थे कि वो अगर सूर्य था तो ये उसकी धूप,वो फूल था तो ये सुगंध,वो बादल तो ये बरखा.इस का नाम लीजिये तो उस की चर्चा खुद होने लगती थी.ऐसी स्वर्ण और कुंदन जैसी जोड़ी थी उनकी.
शादी तो होनी ही थी हाँ उन दोनों के सिवा किसी और को स्वीकार न थी.घर से कोई नहीं आया पर घर तो जाना ही था.शरीफ लोग थे.गालियों और तानों से नहीं नवाज़ा लेकिन आरती भी नहीं उतारी.बहू की हत्या कर देते ऐसे लोग नहीं थे हाँ अरमानों की हत्या से तो कोई पाप नहीं लगता न.और फिर जब मुफ्त में चौबीस घंटे की नौकरानी मिल रही हो तो भला कौन दरवाज़े नहीं खोलेगा.हाँ उन खुले दरवाज़ों से न तो बाहर जाने का कभी कोई रास्ता हुआ और न ही बहू के माता-पिता के अंदर आने का.मिट्टी का तेल डाल कर बहू नहीं,बहू की डिग्रियां जलाई गयीं.बचपन की सी उम्र थी उनकी.अभी पढाई ख़त्म ही हुई थी.न जाने क्या सोचा और क्रांति की मशाल ले समाज रूपी कूड़े को जलाने के लिए निकल पड़े.ऐसा लगता था जैसे संसार को बदल डालेंगे लेकिन क्या जानते थे कि सांसारिकता तो चक्रव्यूह है,एक मोर्चा जीतो तो दूसरा तैयार मिलता है.झूठी शान,दिखावा,रंग-रूप,खानदान,धर्म,जात.न जाने कितने व्यूह थे जिन्हें मिल कर जीतते जीतते कैसे वो अपना जुड़ाव ही हार गए,वो जान ही न पायी.
बेटा तो अपना था, कब तक तिरस्कृत होता ,लेकिन पराये की बेटी ऐसे भी अपनी नहीं हो पाती फिर जो खुद से चली आयी हो उसे तो हर समय विद्रूप दृष्टि,व्यंगबाण और पक्षपाती भेद-भाव का सामना करना होता था.बेटे को रोज़गार में लगाने की कोशिशें हुईं और प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए आने वाले प्रवेश-पत्र सिर्फ बहू के ही फाड़े गए.क्रांति का एक दूत तो अपने घर,माता-पिता और भाई-बहनों के बीच आ कर आरामतलबी की चाह में फरमांबरदार हो गया,अब उसके हिस्से की ज्वाला में भी इसको अकेले ही जलना था.संसार भर में उजाला करने के लिए जो दीपक दोनों ने मिल कर जलाये थे,जब बुझाये गए तब वो तो परे खड़ा रहा,काला धुंआ भभक कर सिर्फ इस के ही मुंह पर पड़ा और आत्मा को भी कहीं अंदर तक जला कर राख कर गया.
एक चमकता चाँद,टूटा हुआ तारा बन कर रह गया.
प्यार की वह नाव जिस पर बड़े से बड़े तूफान में भी न डिगने का लंगर उन दोनों ने मिल कर डाला था,वो थोड़ी सी यात्रा के बाद ही टुकड़े टुकड़े हो गयी.वो तो टूटी नाव के सहारे ही तैर कर पार हो गया और यह संघर्ष के मझधार में फँसी ही रही.निकल आती तो भी कहाँ जाती.
फिर उस बड़े से आंगन में,एक सारे संसार के कद से भी बड़ा गड्ढा खोदा गया.जो इसे साथ ले कर पर्वतों से भी ऊपर आसमानों तक जाने के सपने संजोता था,खुद उसी ने,एक कुदाली प्यार के नाम,एक भरोसे के नाम,एक कसमों वादों के नाम,एक कड़े से कड़े दुःख में भी साथ निभाने के नाम और एक हर पल साथ रहने के नाम पर मारी.फिर उस गड्ढे में डाले गए सपने,अरमान,खिलखिलाहटें,दपदपाता रूप,चमकती ऑंखें,यौवन,जीवन.सिर्फ इसका,उसका नहीं.
और फिर निराशा और हताशा की मनों मिट्टी से वो गड्ढा पाट दिया गया.सब कुछ दफ़न हो जाने की सज़ा मिली,सिर्फ इसको,उसको नहीं.
क्योंकि वो बेटा है,अपना है,पवित्र है.
क्योंकि ये बेटी है,पराये की है और प्रेम करने के नाते पापी है.
हाँ उस गड्ढे पर अब एक वृक्ष है जिसमे से रूपये झरते हैं.
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