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तीन तलाक का मज़ाक ..

Sincerely yours..
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तलाक ….

सुनने में ऐसा लगता है जैसे तड़ाक… किसी ने किसी को चांटा मारा हो.  विवाह जितना ही प्यारा शब्द है , तलाक उतना ही क्रूर..

क्यों ऐसी नौबत आ जाती है कि वो दो लोग , जो एक दूसरे के प्रति समर्पण की पराकाष्ठा से जीवन की शुरुआत करते हैं, उनका एक दूसरे को बर्दाश्त करना इतना मुश्किल हो जाता है कि फिर   कभी न मिलने के लिए अलग होना ही एकमात्र चारा बचता है.

देखा जाये  तो तलाक द्वारा पति और पत्नी दोनों ही अलग हो जाते  हैं, लेकिन इसका अधिक नुकसान पत्नी अर्थात स्त्री को ही झेलना पड़ता है. तलाकशुदा स्त्री आर्थिक, मानसिक और सामाजिक , हर ओर से  हीन मानी जाने लगती है.

इतना ही नहीं..यदि पुरुष आवेश में आ कर बोले गए तीन तलाक पर बाद में पछताते हुए उसी स्त्री से पुनः विवाह करना चाहे तो इसके लिए उस स्त्री को “हलाला” नामक  एक घिनौनी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है. जिसके मुताबिक , उसे किसी दूसरे मर्द से शादी करनी पड़ती  है और बाकायदा पति पत्नी के सम्बन्ध बना लेने के बाद उस व्यक्ति से फिर तलाक ले लेने के बाद ही वह अपने पूर्व पति से पुनर्विवाह कर सकती है..यानि कि उत्पीड़न और शोषण की पराकाष्ठा सिर्फ और सिर्फ औरत के ही लिए है. मुस्लिम औरत होने का मतलब क्या अंगारों पर रखी हुई तलवार की धार पर चलना है??

वैसे तो तलाक किसी भी धर्म द्वारा अनुशंसित नहीं है फिर भी समाज में इसका प्रचलन आम है. हिन्दू धर्म ने तलाक को सिरे से ख़ारिज किया हुआ है, लेकिन धड़ल्ले से तलाक होते रहते हैं. भले ही इसके लिए कितनी भी लम्बी क़ानूनी प्रक्रिया क्यूँ न अपनानी पड़े. ईसाई धर्म में भी देश का कानून ही तलाक का केस खुद डील करता है, लेकिन मुस्लिम धर्म में तलाक को बिलकुल मजाक बना कर रख दिया है. दुनिया जानती है कि मुस्लिमों में पति द्वारा तीन बार तलाक तलाक तलाक कह देने भर से ही शादी उसी पल समाप्त हो जाती है और एक क्षण पहले के पति पत्नी तुरंत ही तलाकशुदा हो जाते हैं.

ये धर्म का कैसा रूप है, और इसकी प्रासंगिकता क्या है..?? जो शादी गवाहों की उपस्थिति में दोनों की सहमति द्वारा होती है, वो अकेले में केवल  पुरुष ही  के द्वारा  तलाक शब्द का तीन बार उच्चारण कर देने से कैसे समाप्त हो सकती है??

इस जंगली प्रथा का साढ़े चौदह सौ वर्षों से आज  तक किसी ने विरोध क्यूँ नहीं किया..पुरुष तो पुरुष, स्त्रियाँ भी चुपचाप इसका शिकार होती चली आ रही हैं तथा इसे सह सह कर  पुरुष की सामंतवादिता  और उपभोगवाद को शै देती रही हैं.

दरअसल तलाक का यह राक्षसी रूप इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक कुरआन में कहीं भी उल्लिखित नहीं है. इसे तो मर्दों ने कुरआन से निकाला हुआ बता कर और  “मुस्लिम पर्सनल लॉ” का जामा पहना कर अपनी मौज मस्ती व अय्याशी के लिए गुंजाइश बना ली  और  इस्लाम को तमाशा बना कर रख डाला . ऐसे घिनौने कृत्यों को बढ़ावा देने   में कुछ फर्जी मौलानाओं का बहुत  बड़ा हाथ है. उन्होंने अपने फायदे के लिए कुरआन और असल इस्लाम को लोगों तक पहुंचने ही नहीं दिया. वे जैसा-जैसा अपनी आंखों से दिखाते गए , सारे मुस्लिम  देखते गए और उसी को सही भी मानते रहे. मुस्लिम परिवारों में अक्सर पढ़े लिखे लोग भी  कुरआन का तर्जुमा  (अनुवाद ) पढना ज़रूरी नहीं समझते है और तोते की तरह अरबी में लिखी कुरान  पढ़ डालते हैं. बिना यह  जानने की कोशिश किये कि कुरआन में आखिर लिखा क्या है?  कौन सी आयत क्या कहती है?और खास तौर पर इसमें औरतों के क्या हक बताये गए  हैं?

आखिर ये सब क्यूँ चलता चला आ रहा है .?? जबकि खुदा  ने भी  तलाक को नापसंद किया है .पवित्र कुरआन में कहा गया है कि जहां तक संभव हो, तलाक न दिया जाए. यदि तलाक देना जरूरी हो भी जाए तो कम से कम इसकी प्रक्रिया न्यायिक हो. पवित्र कुरआन में एकतरफा या सुलह का प्रयास किए बिना दिए गए तलाक का जिक्र कहीं भी नहीं मिलता. इसी तरह पवित्र कुरआन में तलाक प्रक्रिया की समय अवधि भी स्पष्ट रूप से बताई गई है. एक ही क्षण में तलाक का सवाल ही नहीं उठता.कुरआन में स्पष्ट किया गया है कि एक साथ तीन तलाक नहीं कहा जा सकता. एक तलाक के बाद दूसरा तलाक बोलने के बीच करीब एक महीने का अंतर होना चाहिए. इसी तरह का अंतर दूसरे और तीसरे तलाक के बीच होना चाहिए. यह व्यवस्था इसलिए की गई है ताकि आखिरी समय तक सुलह की गुंजाइश बनी रहे.

अफ़सोस तो यह है कि  स्त्रियों ने भी मुस्लिम पर्सनल लॉ की आड़ में चल रहे औरतों के “यूज़  एंड थ्रो ” का कभी विरोध नहीं किया वर्ना उन्हें,  पत्नी को घर से निकालने की मंशा रखने वाले मर्द को तीन तलाक कहने से पहले ही तीन चटाक देकर उसका घर खुद ही छोड़ कर चले जाना चाहिए था.

ऐसा न कर सकने के पीछे निश्चित रूप से मुस्लिम महिलाओं की अशिक्षा, परदे के कारण आई आत्मविश्वास में  कमी और आर्थिक अनिश्चितता ही है. लेकिन अब जब मुस्लिम महिलाएं भी उच्च शिक्षा लेकर मुख्य धारा में शामिल हैं तो इस राक्षसी प्रथा के खिलाफ आवाज़ उठना तो लाज़मी ही है.

मुस्लिम ही क्यों , भारत देश का नागरिक होने के नाते सभी को इस अनाचार के खिलाफ आवाज़ उठाने का हक है.

“मुस्लिम पर्सनल लॉ ” के टट्टर के पीछे दुबक कर बैठे कठमुल्लाओं की अय्याशी के अलावा इस प्रथा में कोई प्रासंगिकता है ही नहीं..वे एक भारतीय नागरिक होने के सारे फायदे हर धर्म के नागरिक की तरह सामान रूप से उठाते हैं लेकिन शादी और तलाक जैसे मुद्दों पर उन्हें पर्सनल लॉ की दुहाई याद आती है. क्यूंकि इसकी आड़ में वे औरतों को दबा कर अय्याशी करते हैं.. अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए चिल्लाते हुए मुल्लाओं को एक बार यह नहीं ध्यान आता कि यही “मुस्लिम पर्सनल लॉ ” उनकी खुद की बहन  बेटियों पर भी पहाड़ बन कर टूट सकता है. यदि मुस्लिमों को अपने लिए मुस्लिम पर्सनल लॉ ही सर्वोचित लगता है तो बाकी क्षेत्रों में वे अन्य नागरिकों की तरह सामान अधिकार मांगने क्यूँ चले आते हैं.

एक बार यदि मान भी लिया जाये की लम्बी क़ानूनी प्रक्रिया को परे रख कर जीवन के निजी फैसले निजी रूप से ले लेने चाहिए , तो फिर यह हक सिर्फ पुरुष को ही क्यूँ है? एक दुखभरी, उत्पीड़नयुक्त शादी को निभाने की मजबूरी से औरत को भी छुटकारा चाहिए होता है. यदि पुरुष तीन तलाक कह कर शादी से निकलना चाहता है तो यही हक़ औरत को भी बराबर रूप से मिलना चाहिए.

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