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श्रद्धया इदं श्राद्धम् अर्थात जो श्रद्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है.
मृत्यु एक शाश्वत सत्य है जिसके अनुसार एक न एक दिन हर व्यक्ति को अपनी संतानों को इस लोक में छोड़ कर उस लोक में चले जाना पड़ता है .चाहे अपने जीवन में वे अपनी संतान के लिए हर पल हर क्षण , उसी की चिंता में जियें , उसकी मामूली सी तकलीफ पर भी अपनी रात दिन की नींद और चैन न्योछावर कर दें , लेकिन मृत्यु के बुलावे पर , राजा हो या रंक, हर किसी को जाना ही पड़ता है .
अपनी ऑंखें खोलते ही , व्यक्ति जिन माता पिता को हर समय केवल संतान की ख़ुशी के लिए ही जीते देखता है, उन माता-पिता की मृत्यु के बाद वह खुद को उनकी यादों के साये से अलग कर ही नहीं पाता है. शोक , दुःख और संताप डूबा व्यक्ति , जिस ने अपनी हर कठिनाई में हर समय अपने माता-पिता को अपने आगे खड़े पाया हो, उनके न रहने पर उबर नहीं पाता और उसके जीवन का सामान्य होना कठिन होने लगता है.
जाने वाला तो चला जाता है लेकिन उसके साथ जाया तो नहीं जा सकता . परिवार में जो लोग रह जाते हैं उनकी आपस में एक दूसरे के लिए बड़ी कठिन जिम्मेदारियां बची होती हैं. ऐसे में किसी की मृत्यु के संताप से उबर कर सामान्य होना एक बहुत बड़ा कर्तव्य होता है.
उस लोक चले जाने वालों के साथ प्रेम के अतिरेक की अवस्था ही “प्रेत” कहलाती है. जिससे मुक्ति पाना अत्यधिक आवश्यक होता है और जिसके लिए घर, परिवार, समाज , देश-काल सभी सहयोग करते हैं.
देश-काल अर्थात उस समय के ग्रन्थ. धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन मिलता है .
दुखी संतप्त व्यक्ति के उद्विग्न ह्रदय को शीतलता प्रदान करने के लिए पुराणों ने इस को ऐसे समझाया है…….
” वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है ,”प्रेत” (प्रेम का अतिरेक ) कहलाता है | चूँकि आत्मा जब सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया, भूख और प्यास का अतिरेक कुछ समय के लिए होता है . इसलिए उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक पुण्यकर्म करके उनका सपिण्डन कर देना चाहिए .सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पितरों में सम्मिलित हो जाता है. अर्थात तृप्त हो जाता है, और अपनी संतान को अपने मोह से मुक्त कर देता है.
कहते हैं वक्त हर दुःख की दवा होती है. अपने किसी प्रिय (पितृ )की मृत्यु से आहत व्यक्ति के शुभचिंतक ,उस को इन सामाजिक कर्म कांडों में उलझा कर उसे इतना समय देते हैं कि वह धीरे धीरे परिस्थिति के साथ सामंजस्य करे और फिर से एक सामान्य जीवन की जिम्मेदारियां निभा सके.
पितृ शब्द में पिता के अतिरिक्त माता तथा वे सब बुजुर्ग भी सम्मिलित हैं , जिन्होंने हमें अपना जीवन धारण करने तथा उसका विकास करने में सहयोग दिया।
इतनी सी बात है, जिसका कर्म-काण्डीय रूपांतर कर के लोगों ने क्या से क्या बना दिया.
ऐसा न कहीं लिखा है और न कहीं घोषित किया गया कि पितरों की तृप्ति के लिए केवल ब्राह्मणों को ही तर माल खिलाया जाये , उनको माध्यम मान कर उनके चरण छुवे जाएँ और मृत व्यक्ति के पसंद की चीजें उनको दान में दे दी जाएँ . प्रियजनों के मोह में भावुक व्यक्ति ये नहीं पूछ पाता है कि ” हे विप्रवर, आप ये सांसारिक वस्तुएं उन उर्जारूप अदृश्य आत्माओं तक पहुंचाएंगे कैसे..??”
खुद मेरे श्वसुर जी की तेरही के दिन पंडितजी ने दान के लिए रखे गए सामानों को देख कर उनके बड़े बेटे यानि मेरे पतिदेव से कहा..”आपके पिताजी मोबाइल भी तो प्रयोग करते थे. इसलिए एक मोबाइल भी दान करिए . “
आंसुओं में डबडबायी हुई उन आँखों में अचानक पैदा हुआ आक्रोश और कुछ न कह पाने की तिलमिलाहट मुझे अभी तक याद है..
इस दान की परंपरा का सत्य , सदियों पहले इस परंपरा की शुरुआत करने वाले ब्राह्मण के लोभ और लिप्सा के सिवा और क्या हो सकता है..??
यह तो मृत्यु के उपरांत तेरह दिनों की बात है. लेकिन हर साल क्वार मास के प्रथम पक्ष को पितृ पक्ष घोषित करके फिर से तरह तरह के भोज्य पदार्थ, अनाज और वस्तुएं दान के नाम पर उगाहने की परम्परा का लाभ किसको मिलता है.????पितरों को…???या कर्मकांड की आड़ में स्वर्गवासी प्रियजनों के नाम पर भावुक कर के दुखी वंशजों को ठगने और मुफ्त का माल उठाने वालों को…???
अब तक पता नहीं कैसे ये सब होता आया..अन्धविश्वास में अंधे लोग क्यूँ इस परंपरा को निभाते चले आये …पता नहीं. लेकिन घोर आश्चर्य की बात है कि अभी भी बड़ी बड़ी डिग्रियाँ लिए हुए पढ़े लिखे लोग, जीवन के हर क्षेत्र में विज्ञान की पहुँच के कारण उत्तरोत्तर विकास करते हुए कहाँ से कहाँ पहुँच चुके लोग, जिनकी दुनिया पूरी तरह डिजिटल हो चुकी है वो लोग …सभी लोग इन थोथी बातों को अभी भी पूरे जोर शोर से निभाते चले आ रहे हैं..
कैसे मान लेते हैं कि जो सूक्ष्म जीव अंतरिक्ष में विचरण कर रहा है , वो प्यासा है ..जबकि वायुमंडल जलीय वाष्प से भरा हुआ है .. पीपल के पेड़ के नीचे जलते हुए दीपक के साथ रखा हुआ मिष्ठान्न और जल ग्रहण करने ठीक उसी स्थान पर पितरों के सूक्ष्म जीव कैसे आ जाते हैं???
क्या जलते हुए दीपक की आँच से सूक्ष्म जीव और विरल हो कर छिन्न भिन्न नहीं हो जाते हैं …?
कैसे मान लेते हैं कि जो अपने तन पर पहने गए कपडे तक अपने साथ नहीं ले जा सके, वे क्वार के महीने के पहले पक्ष में अंतरिक्ष से चल कर धरती पर फिर से ब्राह्मण के मुंह में गयी हुई खीर पूड़ी खाने चले आते हैं…??और साथ ही ब्राह्मण को दान में दिया गया धन भी ले जाते हैं..??
अगर यह सच है तो इस पाप की धरती से मुक्ति पाने के बाद भी, यहाँ की खीर पूड़ी का मोह त्याग न पाने के कारण जो पितर हर साल पृथ्वी की यात्रा पर चले आ रहे हैं , उनके लिए हम मोक्ष की प्रार्थना किस मुंह से करते हैं…
और अगर यह सच नहीं है तो हम अपनी भावनाओं के साथ खिलवाड़ कर के अपने परिवार के भोजन का प्रबंध करने वाले कुछ ब्राह्मणों की अकर्मण्यता को क्यूँ बढ़ावा देते चले आ रहे हैं.
हाँ, कुछ ब्राह्मण जो यज्ञ व हवन करते हैं, उन को दक्षिणा देना पुनीत कार्य है क्योंकि उन्हों ने मेहनत से मन्त्र सीख कर उनके द्वारा देवताओं (प्राकृतिक शक्तियों ) का आह्वान करने की विधि सीखी है और जिनको यह ज्ञान नहीं प्राप्त है, उनके लिए वे अपनी सेवाएं देते हैं . यज्ञ कोई ढोंग नहीं है . मन्त्रों के उच्चारण से पैदा हुई उर्जा सकारात्मक होती है और अच्छी शक्तियों को केन्द्रित करती है. यज्ञ में डाली गयी समिधा से वातावरण शुद्ध होता है. यह कार्य तो हर धर्म , हर जाति के मनुष्य को स्वयं करना सीखना चाहिए लेकिन जो नहीं कर सकते , उनके लिए कुछ ब्राह्मण अपनी सेवाएं देने का कार्य करते हैं और बदले में दक्षिणा लेते हैं.
लेकिन कम ही ऐसा होता है कि हवन करवाने वाले पुजारी मन्त्रों का शुद्ध उच्चारण करते हों. आप ध्यान देकर सुनिए कभी. अधिकतर मन्त्र आपको आधे -अधूरे, बेतरतीब और अशुद्ध सुनाई देंगे. ऐसे हवन का क्या फल मिलता होगा ये बता पाना बड़ा मुश्किल है.
मैं आपको बताऊँ कि पितृ पक्ष में पितरों के लिए ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा मेरे घर में भी दी जाती है जिसमें मेरा भी चित्रलिखित सहयोग रहता है.
कारण यह है कि जो बुज़ुर्ग जीवित हैं , उनकी बातों का हल्का सा भी विरोध उन्हें अपना सरासर अपमान जान पड़ता है. उनकी भावनाओं को आहत होने से बचाने का सिर्फ और सिर्फ एक ही मार्ग है , कि सर झुका कर उनकी बात मानी जाये.
लेकिन मैं ने अपने लिए एक घोषणा कर दी है ….
” मैं शपथ उठा कर कहती हूँ कि मैं पूरी तरह से तृप्त हूँ. मेरे बाद मेरे प्रियजनों की भावना का खिलवाड़ बना कर कोई उसका फायदा लूटे , ये मुझे बिलकुल मंज़ूर नहीं होगा. इसलिए लोग मुझे जो भी कुछ भी खिलाना , पिलाना या सांसारिक वस्तुएं उपलब्ध कराना चाहें, वो मेरे जीते जी करवा दें . मरने के बाद मैं आराम से रहना चाहती हूँ. हर साल पितृ पक्ष में खाने पीने नहीं आऊंगी. धन्यवाद “
क्या आप में भी यह घोषणा करने का साहस है ..??
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