- 69 Posts
- 2105 Comments
हम 132 करोड़ हैं.
अपना प्रतिनिधि खुद चुनते हैं. लेकिन उस पर भरोसा नहीं रखते.
खुद तो देश के अन्दर मार-काट मचा ही रखी है, मुखिया को भी यही सिखाते रहते हैं कि जाओ, बेवकूफों , गंवारों की तरह दूसरे के घर में घुस जाओ , मार दो , उड़ा दो..अगर दुश्मन बेवकूफ है तो आप दर बेवकूफ बन जाओ…
मोहल्ले की लड़ाई समझ रखी है. कि जब पडोसी से ठन जाये तो जी भर के तू -तू मैं- मैं, गाली-गलौज ,जूतम- पैजार, मार कुटाई , हत्या-वत्या सब कर डालते हैं. फिर चाहे थू-थू ही हो जाये. बला से बिगड़ी बात बने या न बने, भड़ास तो निकल जाती है… जहाँ ज़रूरत नहीं होती वहां बेमतलब टांग घुसेड लेते हैं और जहां वास्तव में कोई मुसीबत में हो, वहां झांकते तो ज़रूर हैं , लेकिन दूर से, छुप के..कि घटना का आनंद तो भरपूर उठा लें लेकिन अपना बाल भी बांका न हो.
हमें यह लग रहा है कि जो देश का सबसे बेवकूफ इन्सान था वो जा कर राजा की कुर्सी पर बैठ गया , और अब देश संकट में है तो राजा मुंह ताक रहा है . जैसे जनता की चक चक कर और मीडिया की बक बक ही उसे सही रास्ता दिखाएगी. उसकी अपनी कोई कार्यशैली, रणनीति या सोच समझ तो है नहीं..हम सिखायेंगे तभी वह अगला कदम उठाये गा ..
एक बात तो है..क्या खूब प्रतिभा की खान है हमारा देश..अभी कुछ ही दिन पहले ये प्रतिभावान कवि, लेखक , शायर जिन्हें भारतमाता का सच्चा शेर सपूत बता रहे थे , क्या चुन चुन कर मोती जैसे शब्दों को रत्नों जैसे अलंकारों से सजा सजा कर कविताएँ, लेख , भाषण, आह्वान लिख लिख कर सोशल मीडिया और और अख़बारों में जिनकी शान के कसीदे पढ़ रहे थे, आज उन्ही को सवालों के घेरे में ऐसा खड़ा किया है कि खुद उनको भी अपने होने पर शक होने लग जाये. .उनको ऐसी ऐसी सिखावनें दी जा रही हैं, ऐसी ऐसी लोमहर्षक बातें समझाई जा रही हैं कि जो सत्य रूप लेने लगें तो धरती अपनी धुरी से खिसक जाये. ..लेकिन करने कौन आ रहा है? कोई नहीं… सब ज़बानी जमापूंजी…अगर प्रत्येक रचना में लिखा गया काम खुद करने के लिए लेखक को आमंत्रित किया जाये तो उनकी नानी की तबियत ख़राब होने लग पड़ेगी..
ऐसा तो है नहीं कि हमारे घोषित कर देने से सरकार कायर और दब्बू हो गयी. सरकारी अमले में कारवाई और उसकी तैयारियां शुरू हो जाती हैं और एक्शन भी लिए जाते हैं. हाँ, जनता के लिए उधर से लाउडस्पीकर नहीं लगाया जाता. इसकी ज़रूरत भी नहीं है. हर घटना पर युद्ध की मांग करने वाली बदअक्ल स्वार्थी जनता अपने ही देश के रखवालों के बेमौत मारे जाने की मांग कर रही है. भेड़िया धसान की नीति पर चलने वाले हम, विदेशियों की बुराई में बढ़ चढ़ कर भाग लेते हैं. लेकिन ये नहीं देख पाते कि युद्ध की स्थिति में विदेशों में सामान्य नागरिक, फ़ौज में स्वेच्छा से अपनी सेवाएं देते हैं. खुद महारानी विक्टोरिया का पोता एक आम इन्सान की भांति सेना का सिपाही है. और अपने यहाँ…मंत्री, सांसद या विधायक के पुत्रों से पूछिये…सेना में जायेंगे..? जूड़ी का बुखार चढ़ जायेगा…या ये ही लोग, जो युद्ध, युद्ध चिल्ला रहे हैं, सीमा पर किसी दूसरे सैनिक के बदले खुद जाने को तैयार हैं…? बर्फीली चोटियों, कंकरीली,पथरीली ज़मीन या कांटेदार झाड़ियों वाले जंगल में एक दिन भी चलना पड़े तो अगले दिन ब्लड प्रेशर गिर के घुटनों में आ जायेगा..
इतिहास गवाह है कि युद्ध कभी शांति का विकल्प नहीं रहा..
सन्नाटों को शांति नहीं कहा जाता..
शीश के बदले शीश की मांग करने वाले क्या ये सोच रहे हैं कि पाकिस्तान नाम का कोई आदमी है, उस का सर कटेगा? या नवाज़ शरीफ का सर कटेगा? वो जिस का शीश मांग रहे हैं , वो भी एक साधारण सैनिक ही होगा जो अपने देश के लिए जान न्योछावर करने का जज्बा रखता होगा. कभी यह सोच कर देखें कि दुश्मन की सेना के सैनिक का शीश अगर कटा तो उस शीश के बचे हुए धड का भी वैसा ही एक परिवार कहीं उनके घर लौटने की आस लगाये बैठा होता है जैसा हमारे अपने सैनिकों का होता है..
अपने आरामदायक घरों में ठाठ से बैठ कर परमाणु युद्ध तक की मांग करने वाले एक बार अपने देश और शहर में परमाणु बम गिरने की कल्पना मात्र कर के देख लें. बम केवल नवाज़ शरीफ पर ही नहीं गिरेगा, बल्कि उन पर तो बिलकुल भी नहीं गिरेगा..वो तो इतने सुरक्षित हैं कि UNO के मंच से भी झूठ बोलने में उन्हें कोई शर्म, कोई डर महसूस नहीं होता. बम उन मासूम नागरिकों पर गिरेगा जिनका कसूर सिर्फ ये है कि वे जहाँ पैदा हुए हैं, वहां रहना और बेमौत मर जाना उनकी मजबूरी है, क्योंकि उनके पास कहीं दूसरा कोई ठिकाना नहीं है.
यहाँ पर सरकार को मेरी ओर से एक सुझाव है.
देश में यदि प्रत्येक सरकारी और गैर सरकारी नौकरी के शुरुआती पाँच साल सेना को अपनी सेवाएं देना अनिवार्य कर दिया जाये,तो ये पॉप कॉर्न की तरह फूट फूट कर युद्ध युद्ध चिल्लाने वाले प्रत्येक देशवासी के अरमान भी निकल जाएँ और नौकरी पाने के लिए हजारों लाखों की रिश्वत देने का चलन भी समाप्त हो जाये.
यदि ऐसा हो जाये तो मेरा दावा है कि ये सारे के सारे बरसाती मेढक नौकरी का ख्वाब छोड़ कर अपने बिसराए हुए गाँव की ज़मीनों पर खेती करने भाग खड़े होंगे.
दूसरी और सबसे बड़ी बात , पाकिस्तान को गाली देने से पहले एक बात विचारणीय है कि सेना के अति सुरक्षित कैम्पों में ,उड़ी और उससे पहले भी कई बार ,आतंकवादी घुसे कैसे??? जवानो की दिनचर्या की जानकारी उनको कैसे होती है और अन्दर आने का रास्ता कौन दिखाता है ? ?
सोने की लंका भी विभीषण के बिना नहीं जल सकती थी फिर ये तो धरती का स्वर्ग है. यहाँ एक बहुत बड़ा फर्क ये भी है कि विभीषण ने अनाचार और राक्षस-राज के खिलाफ गद्दारी की थी. ऐसे में पृथ्वी को पाप से मुक्ति दिलाने का लक्ष्य होने के कारण विभीषण की गद्दारी भी सराहनीय मानी जाती है. लेकिन यहाँ मुट्ठी भर सिक्कों के लिए जो खुद अपने ही देश से दुश्मनी करके , देश के जांबाजों की जान का सौदा करते हैं, वे तो विभीषण के पांवों की धोवन भी नहीं हो सकते.
जब भी जांचें होती हैं, परिणाम में अपने देश के ही किसी न किसी छोटे – बड़े कर्मचारी का शामिल होना पाया जाता है. लेकिन उसे दण्ड क्या मिला , ये बाद के समाचारों में नहीं आता है.
अब जब पाकिस्तान ने शांति का एक भी विकल्प नहीं छोड़ा है तब सरकार ने सेना को कोई भी एक्शन लेने की छूट और उसमे सहयोग का आश्वासन दे दिया है . इससे बड़ी बात और मौका क्या हो सकता है. राजनयिक, आर्थिक और पारस्परिक मामलों में यूँ भी पाकिस्तान अलग-थलग पड़ चुका है. ऐसे में सिन्धु-जल समझौता रद्द हो जाने पर पाकिस्तान की स्थिति बलूचिस्तान के रेगिस्तान से भी बदतर हो जाने वाली है. लेकिन फिर वही बात उठती है कि क्या सिन्धु जल- समझौता रद्द करने के साथ साथ,पाकिस्तान के आकाओं की प्यास बुझाने वाली मिनरल वाटर की बोतलों की सप्लाई भी रोकी जाएगी?? सिंचाई की सुविधा न मिलने से खाद्यान्न में कमी आई तो आम पाकिस्तानी नागरिक भूखा मरेगा न कि नवाज़ शरीफ..पन-बिजली परियोजना बंद होने से हजारों कर्मचारी बेरोजगार हो जायेंगे. जीविका का संकट उनको होगा, देश के अहलकारों को नहीं. एक तरफ बलूचिस्तान को संकट से मुक्त करने की आवाज़ उठाने वाला भारत क्या पूरे पाकिस्तान के आम नागरिकों को अपने हाथों भुखमरी , बेरोज़गारी और उसके कारण पैदा हुए गृह-युद्ध की भट्टी में झोंकेगा…??इसमें थोडा संदेह है.
पाकिस्तान से सीधा युद्ध धरती का आखिरी युद्ध साबित हो सकता है , क्योंकि खुले रूप में तो दोनों ही परमाणु-शक्ति संपन्न देश हैं.. छुपा हुआ न जाने क्या हो..
हमें भूतकाल के आंकड़ों से क्या मतलब. फील्ड मार्शल मानेक शॉ ने जनरल नियाजी को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया होगा. जिन्हों ने कागजों पर दस्तख़त किये उनकी छोड़िये . जो सैनिक सर पे कफ़न बांध ,अपने घरों से देश के लिए जान कुर्बान करने निकले थे, उन्हें जब उनके हथियारों को धरती पर रखने का हुक्म दिया गया होगा तो क्या उनके दिलों में उन्ही हथियारों से खुद को ख़त्म कर लेने का विचार नहीं आया होगा..?? हम 1965 में क्या जीते? हम 1972 में क्या जीते ? या आगे भी अगर युद्ध हुआ तो हम क्या जीतेंगे?
इस सवाल का जवाब उन वीर सैनिकों के परिवार वालों से पूछिये जिनके लाल इन युद्धों के बाद या तो तिरंगा ओढ़ कर लौटे या युद्ध बंदी हो कर कहीं गुम हो गए…
पाकिस्तान की कायरता पूर्ण , दुष्टता पूर्ण और ढिठाई पूर्ण हरकतों का अगर मुंहतोड़ जवाब देना ही है तो सबसे पहले अपनी सुरक्षा प्रणाली की खामियों को ढूँढना होगा और देश में घुसे रंगे सियार रुपी गद्दारों को खोज कर उनको सरे-आम कड़े से कड़ा दण्ड देना होगा ताकि किसी और की ऐसा करने से पहले रूह काँपे. साथ ही पाकिस्तान में छुपे आतंवाद के सरगनाओं और वहां की धरती से संचालित आतंकवादी अड्डों और ट्रेनिंग कैम्पों को उड़ाना होगा. हमें इस मामले में अमेरिका से सीख लेनी चाहिए. ओसामा को मारना था तो पाकिस्तान में घुस कर मार गिराया न कि युद्ध छेड़ कर मासूमों की जिंदगियों से खिलवाड़ किया.
जी हाँ, मानवाधिकार के अनुसार हत्याएं ये भी होंगी लेकिन पाप-रहित …क्योंकि असुरों को मारना हत्या नहीं बल्कि “संहार” कहलाता है.
Read Comments