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प्रिय ज्योति,
क्या कहूं तुमसे ….
कहने सुनने से परे , न जाने कहाँ, कितनी दूर जा चुकी हो तुम हम सबसे..
अब तो समय भी नहीं रहा कि तुमसे कुछ कह सकूँ..जब समय था तब कहा होता तब पता नहीं तुमने ध्यान भी दिया होता या नहीं..
खैर….बीता हुआ समय, कुछ भी कर के लौटाया नहीं जा सकता, इस बात को जाते दिनों में जाते जाते न जाने कितनी बार, हर पल तुमने महसूस किया होगा..इस दुखद सच को अपने सर्वांग से भोगा होगा..और तुम्हारे साथ समूचे संसार ने…
तुम ज्योति थी न..उजाला करने के लिए तुम्हारा जन्म हुआ था..लेकिन एक विरोधाभास के साथ..
तुम वो ज्योति हो जो बुझ जाने के बाद उजाला कर गयी….
तुम तो वो ज्योति हो जिसके बुझी हुई लौ से उजाला तो क्या , आग लग गयी थी..
लोगों ने तुम्हे “निर्भया” कहा, “दामिनी” कहा , लेकिन सच बताना..क्या तुम्हे भी ऐसा लगा कभी कि तुम निर्भया या दामिनी हो…?? निर्भया किस लिए..?? क्या दिल्ली की भीषण ठण्ड में, आधी रात को सिर्फ मनोरंजन की खातिर किसी मित्र के साथ बाहर जाने को निर्भयता कहते हैं…??माफ़ करना , ये आज़ादी भले ही हर किसी का मौलिक अधिकार सही लेकिन इसे दुस्साहस से जोड़ना तब ही अच्छा माना जाता है जब उससे किसी का कुछ भला होने वाला हो…बेवजह कोई दुस्साहसिक कदम उठाना निर्भयता नहीं कहलाता..बिना किसी भी बारे में सोचे हुए , कुछ भी ऊट-पटांग कर बैठना कहाँ की निर्भयता है..
तैराकी सीखना किसी का अधिकार सही लेकिन बिना किसी तुक के भँवर में कूद पड़ना निर्भयता नहीं होती…
तुम ने अकारण ही बहुत कष्ट भोगे,.एक छोटी सी भूल का बहुत बड़ा खामियाज़ा भुगता..सारी दुनिया तुम्हारे साथ थी..सब ने तुम्हारे स्वास्थ्य और जीवन के लिए दुआएं मांगीं..तुम तो अंदर अस्पताल के बेड पर ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रही थी और बाहर हाँड़ कंपाने वाली ठण्ड में सारा का सारा संसार तुम्हारे लिए दिन , रात, सर्दी और बारिश की परवाह किये बिना सड़कों पर खड़ा था….तुम्हारे साथ जो अमानुषिक दुर्घटना घटी उसकी शुरुआत तुम्हारे इस अकारण के दुस्साहस से ही हुई..बेशक किसी को भीरु नहीं होना चाहिए लेकिन अनमोल जीवन को अंगारों के कुँए में कूद कर गंवाना निर्भयता तो नहीं कहलाता… ..
एक बार ..अगर सिर्फ एक बार तुमने सोचा होता तो शायद रात में घूमने का कार्यक्रम दिन में भी रखा जा सकता था..रविवार था उस दिन..अवकाश का दिन था और कार्य दिवस अगले दिन था…तुमने जो अकारण सजा पायी उस कष्ट का सहभागी बनते हुए दुनिया में किसी ने कभी ये प्रश्न नहीं उठाया ….
और तो और तुम्हारी माँ , श्रीमती आशा सिंह को भी दुर्योग ने ये मौका कभी नहीं दिया..कितनी बेबसी झेली होगी उन्होंने …..अगर मौका मिला होता तो शायद मन में उमड़ने घुमड़ने वाले लाखों हज़ारों सवालों में से वो तुमसे ये पूछतीं कि “बेटी, मुझसे पूछे बिना रात के दस बजे किसी लड़के के साथ तुम मूवी देखने क्यूँ गयी थी..अगर तुम बलिया में होती तब भी क्या ऐसा करती.?.मेरे द्वारा दी हुई आज़ादी का क्या तुमने गलत फायदा नहीं उठाया..?? तुम पर भरोसा करके मैं ने तुम्हे पढ़ने और आगे बढ़ने के लिए बाहर भेजा था, न कि ज़िन्दगी को लापरवाही के हवाले करने….लड़के से दोस्ती करना गलत नहीं है और न ही कार्य के बोझ से थके हुए मन को तरोताज़ा करना कोई गलत बात है ..फिर भी…तुम्हारा मन इस बात को गलत क्यूँ समझ रहा था…तभी तो फोन पर वार्तालाप होने पर तुमने एक बार भी अपनी माँ को अपने प्रोग्राम के बारे में नहीं बताया ….बताया होता तो शायद अनुभव होने के नाते मैं तुम्हे रात में बाहर जाने से रोकती …शायद तुम मेरे कहने से तुम अपना प्रोग्राम स्थगित कर देती तो शायद आज कब्र में सोने के बजाय तुम मेरे सीने से लग कर सो रही होती..”.शायद..शायद..शायद…
मुझे लगता है कि निर्भय तुम नहीं बल्कि तुम्हारे बहादुर माता-पिता हैं…तुम्हारी बूढी दादी हैं..जो तुम्हारे चले जाने के बाद अपनी बाकी की बची हुई उम्र भर तुम्हारे साथ घटी हुई “रेयरेस्ट ऑफ़ रेयर ” श्रेणी की अमानुषिक दुर्घटना का दंश दिलेरी के साथ झेलेंगे….
निर्भय तुम्हारी माता आशा सिंह हैं..उनकी मर्मान्तक पीड़ा को समझ पाना आसान काम नहीं है..एक माँ का पागल मन ही ऐसा हो सकता है कि यह पता होते हुए भी कि तुम्हारे पेट में एक भी सेंटीमीटर आँत नहीं है, फिर भी वो तुम्हारी आखिरी साँस लेने तक तुम्हे कुछ खिला सकने की चेष्टा करती रहीं….और फिर भी जिन्होंने मीडिया द्वारा लगभग दस महीनों तक तुम्हारा नाम छुपाये जाने के ढकोसले को बेतुकी बकवास बताते हुए कहा……
“मेरी बेटी ने कोई गलत काम नहीं किया तो फिर उसकी तस्वीर और असली नाम क्यूँ छिपाया जाये. मुंह वे छिपाएं जिन्होंने ये घिनौना काम किया..”
तुम्हारे निर्भय पिता श्री बद्री लाल जी पूरी हिम्मत के साथ संसार से कहते हैं कि..“मेरी बेटी के विषय में कुछ भी कहें थोड़ा है. उसने जो लड़ाई लड़ी आपने देखी, अस्पताल में जूझते हुए बयान दिए. मगर अब ये लड़ाई आपको लड़नी है. और ये मशाल तब तक जलनी है, जब तक दिल्ली से, देश से ये दरिंदगी का अँधेरा खत्म हो जाए. और जो ऐसे हादसे का शिकार होकर जिंदा हैं, लड़ाई लड़ रही हैं, उनके लिए समाज को जागना होगा.”
ये सच है कि जिस समय ये दुर्घटना हुई उस समय हिंदुस्तान तो क्या ,पुरे विश्व में एक आक्रोश की लहर जाग उठी थी..लोग-बाग अपना होश-हवास खो कर, भूख,प्यास,नींद, सर्दी, बारिश भूल कर सड़कों पर आ उतरे थे..सिर्फ तुम्हारा हाल जानने को और तुम्हारे न रहने पर तुम्हे न्याय दिलाने को…लेकिन क्या हुआ..समय बीतने के साथ ज़ख्म भरते गए..हफ्ता बीतते न बीतते इसी किस्म की घटनाएं फिर सुर्ख़ियों में आने लगीं..तुम्हारे अपराधी पकडे गए लेकिन पूरे समाज में जो नराधम खुले घूम रहे हैं वो अपनी करनी करतूत करते चले आ रहे हैं..
ऐसा लगता है कि अख़बारों का प्रकाशन ही बलात्कार की ख़बरें छापने के लिए होता है…
कहते हैं कि औरत की छठी इन्द्रिय बहुत तेज़ होती है..लेकिन तुम किस धुन में थी कि रात की आखिरी बस में बैठे 6 नरपिशाचों के चेहरों पर खिंची अपराधिक भंगिमा न भाँप सकी..ऐसी दुःसह परिस्थिति में सड़क पर पैदल चलना ज़यादा श्रेयस्कर होता…
दुर्घटना को होने देने का मौका ही नहीं देना था न…
अब ये तो होगा नहीं कि दुर्घटना के डर से लड़कियां पढ़ना लिखना , बाहर निकलना , उन्नति और विकास के कार्यों में सहभागी होना छोड़ दें..आधी आबादी अगर घर बैठ जायेगी तो बाहर बचेगा क्या..???प्रतिभा, बौद्धिकता, मानसिक क्षमता .सब के सब आधे हो जायेंगे….
लेकिन ये भी सच है कि मनुष्यों के बीच मानुष-वेश में ही भेड़िये भी होते हैं..उनका क्या किया जाये….
वास्तव में लड़कियों को अपनी छठी इन्द्रिय को इतना तीव्र कर लेना चाहिए कि इन छद्म-मनुष्यों को पहचान सकें और इनसे सतर्क रहें….
देखो न…कोई भी बच्चा माँ के गर्भ से बलात्कारी बन के पैदा नहीं होता…
उसके आस-पास के वातावरण , संस्कार और पालन-पोषण में कोई बहुत भीषण कमी होती है जो उसको एक बलात्कारी के रूप में परिवर्तित कर देती है…ये बेहद चिंता का विषय है कि अब जब कि पहले की तरह रेप की घटनाओं को शर्मिंदगी की चारदीवारी में छुपा कर नहीं रखा जा रहा है ..दुनिया भर में इस निकृष्टतम अपराध के खिलाफ जागरूक आवाज़ें भी उठायी जारही हैं फिर भी ऐसी घटनाओं का ग्राफ निरंतर बढ़ता ही जा रहा है…
ज़ाहिर सी बात है कि अपराधी को अपने शिकार के कष्ट या बर्बादी से कुछ लेना देना नहीं होता बल्कि वे उसकी बेबस हार को अपनी जीत में बदल कर अपने निकृष्ट पौरुष का खुद को भरोसा दिलाते हैं….तो क्या उनका उपेक्षित अतीत कुछ ऐसा होता है जहाँ उनका अपने स्वाभाविक अस्तित्व से भरोसा उठ चुका होता है…??उनके बचपन को मिलने वाली देखभाल , वातावरण या पालन-पोषण में अवश्य ही कोई भारी कमी होती है…..
इस ओर कभी किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन बलात्कारियों की मानसिकता का अध्ययन बेहद चौंकाने वाला होता है…अपराध की गम्भीरता और घृणितता को देखते हुए ये निकृष्ट व्यक्ति अवश्य ही नफरत के योग्य होते हैं लेकिन अपराध के परे ये बेहद शक्तिहीन और बेचारगी कि हद तक मानसिक बीमार होते हैं..इनमे आत्मसम्मान की घोर कमी होती है..सर्वेक्षणों द्वारा एकत्र आंकड़े बताते हैं कि अधिकतर वे ही पुरुष बलात्कारी बनते है जिनके बचपन ने अपने घर में कलहपूर्ण माहौल देखा है..जहाँ परिवारीजन आपस में असभ्य और अपशब्दो से भरपूर भाषा का प्रयोग करते हैं..बच्चों को बिना उनकी पूरी बात सुने , बेदर्दी से मारा और गालियों द्वारा डांटा जाता है..गलती के बगैर सजा दी जाती है ….और तो और , आंकड़े यहाँ तक कहते हैं कि उनके परिवार की महिलाएं बहुत संस्कारी और आदर्शवान होने का केवल ढकोसला और दिखावा करती हैं पर वास्तव में अंदर ही अंदर कुटिल होती हैं…इसी लिए इनके मन में औरतों की कोई इज्जत नहीं होती क्योंकि इन्होंने अपने घरों में इज्जत किये जाने योग्य महिलाएं नहीं देखी होती हैं.. …
इस तरह के माहौल से सामंजस्य न बैठा सकने के कारण बच्चे के मन में प्रतिशोध उपजता है जो अंदर ही अंदर उसको कुंठित और विद्रोहित करता रहता है…बढ़ती उम्र के साथ साथ बालक तनावग्रस्त रहने लगता है …किशोरावस्था में जब शरीर के रहस्यों की पहचान होने लगती है तो बालक तनाव को सेक्स द्वारा दूर करने का सरल उपाय खुद बखुद खोज लेते हैं…अवचेतन मन में निरंतर बसने वाली कुंठा , तनाव और निराशा के कारण महत्वाकांक्षा और जीवन से कुछ मिल सकने की आशा को तिरोहित हो कर भग्नाशा में बदलते देर नहीं लगती…ऐसा व्यक्ति हर समय हर किसी से प्रतिशोध लेने की भावना से ग्रस्त हो जाता है..ऐसे में जब भी कोई कमज़ोर शिकार सामने आता है तो ये दिशाहीन पुरुष बलात्कार जैसा निकृष्टतम अपराध कर बैठते है ..
इसके ठीक विपरीत , मनोविज्ञान कहता है कि जिन लड़कों कि माँएं उन पर प्यार दुलार से नियंत्रण रखती हैं, उन्हें अपने नज़दीक रखती हैं, वे लड़के स्त्री स्पर्श में छुपे प्रेम की कोमलता को समझते हैं और सम्मान देते हैं…
अभी तुम ये कहोगी कि किसी को देख कर उसके अतीत के बारे में कैसे जाना जा सकता है..पर ऐसा नहीं है..अस्वस्थ व्यक्ति, चाहे वो मानसिक रूप से अस्वस्थ ही क्यूँ न हो….साफ़ पहचान में आ जाता है..
ऐसे व्यक्ति के हाव भाव भंगिमा , बात करने का तरीका सामान्य व्यक्ति से बिलकुल अलग होता है ..वे अगर समूह में हो तो खामखा एक दूसरे से फूहड़ बातें और भद्दे इशारे करके आतंकित करने की हद तक अट्टहास करते हैं .. और अगर अकेले ही हो तो नोटिस किये जाने की हद तक असामान्य और भोंडी हरकतें करते हैं..
ज़ाहिर है कि ये घोर अपराध अकेले में ही होता है इसलिए ऐसे मौके पर वे अगर किसी शिकार को देख लेते है तो पहले छिछले किस्म की हरकत शुरू कर देते हैं और विरोध किये जाने की स्थिति में पकड़ जाने या बात बिगड़ने के डर से अपराध को पूरा करने का भरसक प्रयास करते हैं…यहाँ तक कि वे अपने शिकार की जान भी ले बैठते हैं..
इतना तो तय है की अगर समय रहते कोई सहायता को न आ गया तो फिर इन मानसिक रोगी इंसान रूपी भेड़ियों से एक कमज़ोर लड़की का बचना लगभग असम्भव हो जाता है…
तो फिर ऐसी स्थिति ही क्यों आने दी जाये…
घर से निकलते समय ये बिलकुल पता नहीं होता कि रास्ते में साधू मिलने वाले हैं या शैतान…तो फिर क्यूँ न अपनी सुरक्षा का प्रबंध करके चला जाये….बुराई को मिटाने का संकल्प लेने के लिए सब से पहले ज़िंदा रहना तो ज़रूरी है न…
मानसिक रूप से विकृत व्यक्ति को सुधार पाना लगभग असम्भव है….क्योंकि बीमारी के कीटाणु काफी पहले से , उसके बचपन के दिनों से ही अंदर घर बनाना शुरू कर देते हैं..
अशिक्षा या कुशिक्षा, माता पिता का लापरवाह पालन पोषण, घर का गन्दा माहौल, बुरी सोहबत, बच्चे की गलत आदतों और बुरी हरकतों को नज़रअंदाज़ करना आदि ऐसे हज़ारों कारण है जो व्यक्ति को दिग्भ्रमित कर देते हैं..ऐसे में कुंठित मन से सही गलत की पहचान ख़त्म हो जाती है और कहीं अगर किसी गलत हाथों द्वारा अश्लील साहित्य या फ़िल्म से परिचय करा दिया गया तो बस एक अच्छा खासा व्यक्ति सेक्स द्वारा तनाव को दूर करने के सरलतम तरीके के बारे में जान लेता है और शिकार की तलाश में रहने लगता है….
ज़रा सोचो ज्योति…..ऐसे व्यक्तियों को भीड़ में से ढूँढ कर गोली तो नहीं मारी जा सकती न…सिर्फ बचा ही जा सकता है….काश समय रहते ये बातें तुम्हे समझायी जा सकतीं…..
तुम तो अपनी नासमझी से कुर्बान हो गयी लेकिन ऐसी और न जाने कितनी बच्चियां, लड़कियां और महिलाएं हैं जो तुम्हारी बुझी हुई ज्योति से उजाला मांग कर अपने जीवन को खतरे से बचा सकती हैं….
ज़रूरत है आत्मविश्वास की…न की अतिरेक विश्वास की..
लेकिन देखो…साल बीतते देर न लगी पर कुछ भी न सुधरा..तुम्हारा शहीद होना बेकार चला गया, स्थिति ज्यूँ कि त्यूँ है, बल्कि और बिगड़ गयी है….कारण जानना चाहती हो….???
क्योंकि लोग पापियों को सजा दिलाने में जुट गए और पाप के कारण को नज़रअंदाज़ कर बैठे…इसीलिए पापी मिटते गए परन्तु पाप फलता फूलता रहा….
ये कर्महीन, दिशाहीन, लक्ष्यहीन भटकती नौजवानी….अपनी योगयता से ऊँची महत्वाकांक्षा पालना…थोड़े से पैसे कमा कर उसे मौज मज़े में खर्च करना….अश्लील साहित्य/फ़िल्म का चस्का…मस्तिष्क को पंगु बना देता है…और खामखा का तनाव बाहर निकलने के असामान्य रास्ते ढूँढता है..
इसीलिए देखो….अधिकतर ऐसे अपराधी निचले तबके के कम पढ़े लिखे साधारण कमाई वाले कामगार पाये जा रहे हैं..जिनके जीवन का लक्ष्य चार पैसे पा कर पूरा हो चुका है…
लोग कहते हैं कि लड़कियों का खुला पहनावा और उन्मुक्त व्यवहार अगर बलात्कार के लिए उकसाता है तो फिर नन्ही बच्चियां या उम्रदराज़ महिलाएं इनका शिकार कैसे बन जाती हैं….लेकिन वास्तव में कारण यही है….
आज जब कि मोबाइल और इंटरनेट बेहद सस्ते हो कर निचले तबके के आम आदमी के हाथ तक पहुँच चुके हैं वहाँ ये कम पढ़े लिखे , थोड़े से पैसे पा जेन वाले कामगार, इसका उपयोग शिक्षा के लिए नहीं बल्कि पोर्न साइट्स देख कर उत्तेजित होने के लिए करते हैं..और देखो न , उधर कोई लड़की अर्धनग्न हो कर पैसे कमाने के लिए पोर्न फ़िल्म में काम कर के उकसाने का निकृष्ट काम करती है , इधर कोई दूसरी शालीन , निरपराध लड़की अपराधी के हत्थे चढ़ कर अपनी ज़िन्दगी बर्बाद करवाती है….
क्या कभी किसी ने इस देश में ये आवाज़ उठाई कि जहाँ लड़कियों को शिक्षा देने के लिए फीस मुक्ति, किताबें , साईकिल, लैपटॉप अदि दिए जाने की योजनाएं पायी जाती हों ,उस विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारतवर्ष में सर्वोच्च न्यायपालिका द्वारा मदिरालयों में लड़कियों को बार डांसर का काम करने के लिए लाइसेंस क्यूँ दिया जाता है….ये लड़कियों को विकास की कौन सी राह दिखाई जा रही है..
एक छोटी सी डिवाइस लगा कर समूचे क्षेत्र में पोर्न साइट्स को बंद किया जा सकता है….देश में बढ़ते हुए यौन-अपराधों के देखते हुए भी इन साइट्स का धड़ल्ले से प्रचलन जारी है और कानून के रखवालों के कान पर जूँ नही रेंगती..
खैर..ऐसे ही देश में हम बसते हैं तो फिर अपनी सुरक्षा अपने हाथ….
अपने लिए, अपने माँ बाप के लिए, अपने परिवार के लिए, अपने अस्पताल के लिए……तुम जी रही होती तो नज़ारा ही कुछ और होता….
आज ज्योति, तुम बुझ गयी लेकिन बुझने के बाद भी अगर किसी को कुछ उजाला मिल सके तो हम यही कहेंगे..
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