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हौसला है के ज़माने को आग लगाएंगे ,
कहाँ से लाएंगे शोले बुझे दिलों में अब ,
ज़मीर मर गया है ,जल के बुझ चुका है अब,
मुर्दा एहसास कफ़न के बिना ही दफ़न हैं अब,
वो रो रहे हैं सीना पीट पीट कर के अभी ,
जो कह रहे थे जियो या मरो हमें क्या अब ,
हाथ जिनके न उठे थे कभी दुआ के लिए,
बद्दुआ में भी उनकी न हो अब असर या रब,
उनके बुत, उनके खुदा उनकी खुदगर्ज़ी के सुपुर्द,
उनके जीवन में कहाँ इंसान की कदर है अब ,
किसकी गर्दन पे रखा पाँव है उन्हें क्या फिकर,
साँस लेता है कोई मर गया उन्हें क्या अब,
उन्हें तो गरज़ है अपने लिए उजालों की ,
किसी की ज़िन्दगी जलती हो चाहे बेमतलब ,
जिन्हों ने देखना चाहा न कभी सूरज को,
उनकी पलकों को चांदनी जला रही है अब,
और जो सर झुकाये जी रहे हैं मर मर के ,
उनकी मौतों को इंकलाब मिल सकेगा कब,
जो सह रहे हैं उनका सब्र मिटे, जब्र मिटे या न मिटे,
टूट जाएँ उठी तलवारें शायद ऐसे अब,
बन के आतिश खामोशियाँ कभी तो फूटेंगी,
कभी न कभी तो ये होगा मगर होगा कब,
वो वक़्त होगा समंदर भी हार जायेगा ,
वो आग बुझ न सकेगी जो यूँ लगेगी तब,
जो चुभ रहा है खलिश बन के गो के सच्चा है ,
वो लफ्ज़ आये ज़ुबां पर वो सुबह आयेगी कब…
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