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बात थोड़ी उलझी हुई सी है…..
धरती पर अनगिनत जीव हैं. सुनते हैं कि चौरासी लाख योनियां हैं…बलशाली भी हैं, निर्बल भी हैं. किसी को सौ साल से भी लम्बी आयु मिली है तो कोई सुबह पैदा हो कर शाम को मर जाता है..कोई जलचर है , कोई स्थलवासी तो कोई हर जगह आराम से रह लेता है….जिसको जैसा जीवन मिला है , वो जी रहा है…जीवन जीने की प्रक्रिया में चुनौतियाँ सब के सामने आती हैं, लेकिन अस्तित्व का संकट कम ही आता है …
हाँ , आता है, जब कोई जीव अपने प्रकृति प्रदत्त आचरण को छोड़ कर किसी अन्य क्रिया कलाप में लग जाता है या लगा दिया जाता है …..और ये प्रकृति विरोधी क्रिया मनुष्य के सिवा कोई और जीव नहीं करता..ये मनुष्य ही है जो अपने से कमज़ोर जीवों को , चाहे वो पशु हों या उसकी अपनी जाति की सहचरी, जिसे प्रकृति ने जीवन की सुंदरता और सरसता बनाये रखने के लिए निर्मित किया , उसको अपने अधीन करना चाहता है…..अधीनता की इस क्रिया में अधीनस्थ जीव को अपना नैसर्गिक आचरण और दिनचर्या छोड़नी पड़ती है , जिसके चलते निर्बल और भी ज्यादा निर्बल और अवलम्बित होता जाता है….
सृष्टि की शुरुआत कब हुई, मानव कब अपने वर्त्तमान रूप में आया..इसका अनुमान लगाना कठिन है, लेकिन ये तो तय है कि सभ्यता के विकास का मूल ही मनुष्य का स्त्री और पुरुष, दो जातियों का होना है… एक दूसरे की शारीरिक और मानसिक विभिन्नताओं को समझने और सम्मान देने के क्रम में ही सभ्यता विकसित होती चली गयी और समाज का जन्म हुआ….
इतिहास के ग्रन्थ बताते हैं कि प्राचीन युग में नारी और पुरुष का किसी किस्म का टकराव नहीं था..समाज में दोनों की प्रस्थिति समान होती थी. स्त्रियां भी वेदों/शास्त्रों का पठन -पाठन करती थीं और शास्त्रार्थ अदि में भी भाग लेती थीं…
विज्ञान कहता है कि कालांतर में शारीरिक रूप से कमज़ोर होने के कारण धीरे धीरे स्त्रियां पुरुष के अधीन होती गयीं….कभी सुरक्षा के चलते तो कभी स्वार्थ के कारण ….
लेकिन मनोविज्ञान का कहना है कि स्त्री को बौद्धिक स्तर पर अपने बराबरी में खड़ी देख कर पुरुष का अहम् आहत हुआ होगा जिसके लिए उसने नारी को धीरे धीरे नियमों में बांध कर अपने अधीन करना प्रारम्भ किया होगा…
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और यहीं से अस्तित्व की लड़ाई प्रारम्भ हुई , जो आज कहाँ से कहाँ पहुँच चुकी है…
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विज्ञान के अनुसार स्त्री और पुरुष की मानसिक क्षमता (brain capacity) समान होती है लेकिन मनोविज्ञान कहता है कि स्त्री और पुरुष का मस्तिष्क बिलकुल अलग -अलग तरह से सोचता है..
लेकिन प्रश्न ये उठता है कि आखिर पुरुष को स्त्री के स्वावलम्बन से खतरा क्या है..??
क्या कारण है कि स्त्री ही पुरुष के अधीन हो जाती है…..??
अस्तित्व की रक्षा और सुरक्षा का प्रश्न स्त्री के सामने ही क्यूँ आता है ..??
असल में ये एक लम्बी दास्तान है, और इसके लिए दोनों ही पक्ष ज़िम्मेदार हैं….
बात को सरल करने के लिए हम ये मान लेते हैं कि चूँकि स्त्री और पुरुष , दोनों ही जातियों का कोई एक आदर्श गुण -धर्म वाला प्रतिनिधि नहीं है, अतः हम दोनों जातियों को कई वर्गों में बाँट कर विवेचना कर लेते हैं…..
ऐसा कहाँ होता है कि सभी पुरुष सभी स्त्रियों को अपनी दासी बनाये हुए हैं ..और न ही स्त्रियां अब ऐसी हैं कि नियमस्वरूप पुरुष की बंदिनी बन कर रहती हों…
समाज में अधिकांश पुरुष धीर , गम्भीर , शांत , सब का यथोचित सम्मान करने वाले संयमित और मर्यादित पुरुष हैं..
लेकिन एक वर्ग ऐसा भी है जो नारी को सदा हेय समझता है..इनकी नज़रों में स्त्री का जीवन घर की चारदीवारी के भीतर ही सीमित रहना चाहिए ..उसको खाने और कपडे के सिवा खुली हवा में साँस तक लेने का अधिकार नहीं होना चाहिए…. ये खुले आम नारी -विद्वेष (Misogyny) की भावना रखने वाले पुरुषों का वर्ग है ..
एक वर्ग है मानसिक रूप से बीमार व विकृत पुरुष का…जो स्त्री को कभी भी किसी भी रूप में सम्मान नहीं देते है .उसे उपभोग की वस्तु समझते हैं और अपमानित व प्रताड़ित करने के मौके ढूंढते रहते हैं..
लेकिन हर वर्ग के पुरुष के अंतस में कहीं न कहीं ,नारी के सफलता के नित नए आयाम तय करते हुए क़दमों को रोकने और उड़ान भरते हुए पंखों को काटने की इच्छा दबी रहती है…
प्रयोगसिद्ध है कि शांत ,संयमित व स्त्री की सफलता की सराहना करने वाले पुरुषों के अचेतन में भी कहीं न कहीं पुरुषोचित अहम् के कारण ईर्ष्या , व हीनता का भाव दबा रहता है…जिसे वे जान भी नहीं पाते ,लेकिन इसी भावना के कारण वे स्त्री के रास्ते में खुलेआम अवरोध न उत्पन्न करके उसे सुरक्षा अदि देने के नाम पर पिछाड़ना चाहते हैं…
अब यदि हम स्त्री के वर्गीकरण की बात करें तो सब से बड़ा वर्ग सामान्य मध्यमवर्गीय नारी का है..
इस वर्ग की स्त्री आज सदियों से बंधनों में रखे जाने के बावजूद भी हर क्षेत्र में सफलता की नयी ऊंचाइयों पर है…कोई भी विषय व क्षेत्र अब ऐसा नहीं रह गया है जहाँ नारी ने अपनी सफलता के झंडे न गाड़े हों…हालत ये है कि अज्ञात कारणों से नेवी तथा थलसेना के कुछ स्थानों की नौकरी का आवेदन करने से महिलाओं को निषेधित किया जाता है अन्यथा वे वहाँ भी पहुँच कर पुरुषों को पीछे कर सकती हैं….
बहरहाल..छुरी खरबूजे पर गिरे या खरबूजा छुरी पर….कटता तो खरबूजा ही है…
स्त्री के मार्ग में सब से बड़ा अवरोध है उसकी शारीरिक दुर्बलता….
नारी के सपनों की ऊँची उड़ान को रोकता है सिर्फ कुदरत द्वारा दिया गया दुर्बल शरीर…
एक सोलह साल की लड़की और सोलह साल के लड़के के शारीरिक बल में धरती आकाश का अंतर होता है और यही अंतर स्त्री की महत्वकांक्षी उड़ान के पंख काट डालता है…
होता ये है कि स्त्री भी एक स्नेहाकांक्षी ह्रदय रखती है..उसे भी अवसर, सम्मान और पहचान और संरक्षण चाहिए..
कुदरती कोमल भावनाओं के कारण अगर वो अपने करिअर के साथ साथ परिवार का भी ध्यान रखती है तो आम तौर पर देखा जाता है कि परिवार के बाकी लोग उसे एक काम करने वाली मशीन समझ कर सारा बोझ डाल देते हैं ..
घर के बाहर अगर वो मिष्टभाषी हो और सहज व्यवहार रखे तो पुरुष सहकर्मी उसे कोई सहज उपलब्ध वस्तु समझते हैं और यदि अपने आप में सीमित रहे तो चिढ़ कर आपसी खिसियानी बात चीत में उसे गालियों से भी नवाज़ा जाता है….
हालाँकि एक अन्य वर्ग अति महत्वाकांक्षी स्त्रियों का भी हैं..जो आगे बढ़ने के लिए किसी भी स्तर तक जाने को तैयार रहती हैं..कहते हुए क्षोभ होता है परन्तु ये अतिशय महत्वाकांक्षी स्त्रियां सफलता पाने के लिए अपने स्त्रीत्व को मोहरा बनाती हैं और स्त्री होने का भरपूर फायदा उठाते हुए अपने शरीर को भी दांव पर लगाने से नहीं हिचकिचाती हैं….देखा जाये तो अस्तित्व का आभासी संकट सब से ज्यादा इसी वर्ग की स्त्रियों के सर पर है ….इनकी बौद्धिकता न के बराबर होने के कारण यदि ये अपना शरीर दांव पर न लगाएं तो प्रगति की राह में कहीं भी न टिक पाएं..लेकिन ये अनैतिक तरीके से अर्जित सफलता अधिक दिन नहीं टिकती और एक न एक दिन पर्दाफाश होता है..परिणामस्वरूप जो छीछालेदर होती है उसका कोई हिसाब ही नहीं..
यहाँ प्रश्नचिन्ह शोषण करने वाले पुरुषों पर नहीं है..बल्कि अपने फायदे के लिए स्वेच्छा से देह समर्पित करने का शॉर्ट -कट अपनाने वाली नारियों से पूछा गया प्रश्न है कि जब तक स्वार्थ सिद्धि होती रहती है , तब तक आदान-प्रदान का ये खेल राज़ी ख़ुशी से चलता रहता है , लेकिन जैसे ही लाभ में कोई कमी आने लगती है या कोई मुद्दा फंसता है वैसे ही ये सती नारियां यौन-शोषण का ट्रम्प कार्ड क्यों चल देती हैं…
अंत में एक बहुत छोटा वर्ग उन नारियों का है जिनके सामने सच में ही अस्तित्व की रक्षा का संकट है…ये वो महिलाएं और बच्चियां हैं जो संसाधन विहीन हैं…मेधावी और कुशाग्र होने के बाद भी या तो कमज़ोर आर्थिक स्थिति या दूरस्थ गांवों अदि में रहने के कारण जो शिक्षा से वंचित रह जाती हैं…जिनके दो हाथ कलम पकड़ने के बजाय अपने माता पिता के साथ पेट भरने के उपाय खोजते हैं..और जिनके आगे बढ़ने के अरमानो को कुचलते हुए उनके माता पिता कच्ची उम्र में ही ज़िम्मेदारी से मुक्ति पाने के लिए शादी के चक्रव्यूह में फंसा देते हैं ….सरकार द्वारा अगर उनकी पढाई के लिए वज़ीफ़ा मिलता भी है तो वो घरेलू कार्यों में ही खर्च कर दिया जाता है…
आज सही मायनों में इन्ही बच्चियों को सहारे और सहयोग की ज़रूरत है ताकि ये भी आगे बढ़ के अपने जीवन मे कुछ बन सकें और सदा पराश्रित ही न रहें…
वैसे एक बात और भी है…..
शासक और सर्वहारा वर्ग सदा पुरुष और नारी ही क्रमशः हों, ये ज़रूरी नहीं होता….
सत्ता की शक्ति की शराब का नशा अपने से कम शक्ति वाले को सताने से और तेज़ चढ़ता है..
अतः सत्ता जिसके भी हाथ में हो, चाहे वो पुरुष हो या स्त्री, अपने से निर्बल को दबा कर अपने अहम् को पोषित करता है… देखा गया है कि कभी कभी परिवार में उच्च प्रस्थिति प्राप्त महिलाएं ही महिलाओं को प्रताड़ित करने में पीछे नहीं रहती…
ऐसे में एक आदर्श सुन्दर समाज की परिकल्पना कैसे की जा सकती है …..
ऐसा समाज जहाँ कोई बलशाली किसी निर्बल को न सताए..
जहाँ सब एक दूसरे का वास्तविक सम्मान करते हों..
जहाँ कोई किसी की प्रगति देख कर कुंठित न हो बल्कि प्रेरणा ले…
जहाँ स्त्री व पुरुष दो अलग जातियां न हो कर केवल इंसान हों और प्रतिद्वंदी न हो कर एक दूसरे के सहयोगी हों …
जहाँ सब अपनी अपनी बौद्धिक क्षमता के अनुसार कार्यक्षेत्र अपनाएं और तरक्की के शॉर्ट कट न अपनाएं..
याद रखें….हाथ मिलाने के लिए बंद मुठ्ठी को खोलना पड़ता है…
दर्पण के सामने जो रूप होगा वही प्रतिबिंबित होगा…
अत्याचार का अंत सदा क्रांति से होता है…अतः सब को जीने का अधिकार मिलना चाहिए…..
यदि हमें अपने लिए कुछ अच्छा चाहिए तो अच्छा देना भी पड़ेगा……
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