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आखिर क्यों???

Sincerely yours..
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क्या आपने कभी नोहे सुने हैं…?? अगर नहीं तो आइये आपको आज एक नोहा सुनाते हैं…


दो मोहर्रम को यहाँ मेरा रहबर था रुका
साथ कुनबा था मेरा मैं अकेला भी ना था
आओ ज़वारो मेरे साथ चलो
थाम कर दिल मेरा मक़तल देखो
ये मक़ामे अली अकबर है जहाँ
मेरे बच्चे पे जहाँ रोई अज़ान
ये मक़ामे अली असगर है जहाँ
आज भी बैठी हुई रोती है माँ
ये जगह वो है मेरे ज़वारो
लाशे क़ासिम हुवी पामाल इधर
दो मक़ामात जो आते हैं नज़र
कटे अब्बास के बाज़ू थे इधर
हैं ज़रा दूर जो दो दिल के क़रार
हैं मेरे और मोहम्मद के मज़ार
आसरे आशूर से तुरबत के करीब
मेरा हूर और मेरा लश्कर है यही
और ये टीला – ए ज़ैनबया है
यही ज़ैनब ने ये मंज़र देखा
मुझ पे चलता हुआ खंजर देखा
मेरा आशूर या चहल्लुम हो मेरा
करबला आता है कुनबा मेरा
फिर सकीना जो यहाँ आती है
मेरी तुरबत से लिपट जाती है

या हसन…
या हुसैन ..
हम न हुए….
हम क्यों न हुए…


इसी किस्म के नोहे (शोक भरे गीत ) मुहर्रम के महीने में मुस्लिम (विशेषकर शिया ) भाई मस्जिदों में , मजलिसों में रो रो के गाते हैं, जिन्हे सुन कर गैर मुस्लिमों के भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं..दरअसल मुहर्रम के महीने में ये नोहे प्रोफेट मुहम्मद के छोटे छोटे कमउम्र नवासों , हसन और हुसैन के दमिश्क के खलीफा यज़ीद के साथ हुए युद्ध में घटे हुए भीषण , अमानवीय अत्याचार को याद कर के दुखी हो कर मातम में गाये जाते हैं. मातम अपनी चरम सीमा पर मुहर्रम माह की दसवीं तारीख (अशूरा) को पहुँचता है , जिस दिन यज़ीद ने हसन , हुसैन, सहित मुहम्मद साहब के 72 अनुयायियों को , जिसमे छह माह की उम्र का बच्चा (अली असगर )भी था.., क्रूरतम अत्याचार करके मौत के घाट उतार दिया था..

इतना ही नहीं,मातम की इन्तहा में भावावेशित मुस्लिम युवा और बच्चे अपनी छाती पीट-पीट कर जुलूसों की शक्ल में रोते हुए सड़कों पर घूमते हैं, लोहे की ज़ंजीरों और चाकुओं से खुद को मारते है , जलते हुए अंगारों पर चलते हैं, लोटते हैंऔर सीना पीट पीट कर कहते हैं…..
हाय हसन….
हाय हुसैन …
हम तब होते….हम भी होते…..

लेकिन यहाँ मेरा मक़सद मुहर्रम के मातम का उद्भव बताना नहीं है बल्कि कुछ और बात है जो मुझे व्यथित कर जाती है..शायद इस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता है कि लगभग 1500 वर्ष बीत जाने के बाद भी उस दुखद घटना को याद कर के इस प्रकार खूनी मातम मनाने का क्या औचित्य है..
माना कि कर्बला का युद्ध भोले भाले मासूम निहत्थे विवश लोगों पर की गयी पाशविकता का एक भयंकरतम उदहारण है , लेकिन जो हो चुका , उस पर इस तरह रोने से क्या होगा..


मैं ने मुस्लिमों ही नहीं, गैर मुस्लिमों को भी मुहर्रम की कहानियां सुन कर दुःख से रोते देखा है..मनुष्यता की भावना जब ऊपर हो तो हिन्दू-मुस्लिम का भाव नहीं आता..लेकिन यूँ अपने ही खून से रंगरेज़ी कर के दुःख मनाने से बीता हुआ समय तो नहीं लौटाया जा सकता और न ही हसन, हुसैन और उनके सभी साथियों/ अनुयायियों पर किया गया अत्याचार ही वापस हो सकता है..


हो सकता है कि लोग मेरे मत से विभिन्नता रखें , लेकिन मेरे विचार से अब उस घटना की याद में मातम करने का कोई औचित्य नहीं है.

जैसा कि मैं हमेशा ऊर्जा के सकारात्मक व्यय में विश्वास रखती हूँ, यहाँ भी मुझे लगता है कि ये परंपरा, सारे विश्व की युवा शक्ति का ह्रास है…क्षरण है और भटकाव है..


ये मातम कर के आंसुओं से चेहरा और खून से शरीर को रंगे हुए , दीवानों की तरह रोते बिलखते युवक, किस तलाश में है और क्या पाना चाहते हैं…कोई इनको क्यूँ नहीं समझाता कि बीती हुई बात पर दुःख सबको होता है लेकिन उसके लिए जान भी दे देने से इतिहास में कोई बदलाव नहीं हो सकता..

इतिहास में जाइये तो एक से बढ़ कर एक भीषण युद्ध और क्रांतियां हुई हैं ..दोनों विश्व युद्धों को बीते हुए ही अभी बहुत ज़यादा समय नहीं हुआ है. प्रथम युद्ध में जर्मनी और द्वितीय में अमेरिका द्वारा किया गया मानवमात्र पर अत्याचार और विध्वंस भी हम भूले नहीं हैं..हम तब भी नहीं थे, लेकिन उसके लिए सीना पीट कर रोते नहीं हैं…

ज़यादा दूर क्यों जाएँ, भारत-पाक बॅटवारे के समय दोनों देशों की सीमाओं पर हुई खामखा की मार काट, पलायन, विस्थापन , बेतहाशा भागते हुए लोगों के व्यामोह, तड़प, और फिर भी जीने की बेचारगी कोई हँस कर भुला देने वाली घटनाएं नहीं है..हम उस समय भी नहीं थे लेकिन उसके लिए मातम नहीं करते ..या अगर होते भी तो शायद हज़ारों लाखों करोड़ों बेचारे लोगों की सूची में हमारा भी नाम होता ..उस समय जो कुछ भी घटित हो रहा था , पता नहीं हम उसे अपनी तरफ से रोकने की कोशिश भी करते या नहीं…

हाल ही के दिनों में भी देश /विश्व में क्या कुछ नहीं घटित हो रहा है ..हर तरफ अनाचार फैला है. स्वार्थ साधकों द्वारा अकारण ही निर्दोषों मासूमों की जान लेना जैसे एक बच्चे का खेल हो गया है…जॉर्डन, सीरिया, इसराइल, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांगला देश , हमारा प्यारा भारत महान, और भी न जाने कितने विकासशील देश आग में जल रहे हैं…अब तो हम हैं..लेकिन क्या कर लेते हैं..

अपहरण , हत्या, डकैती, लूट, बलात्कार, दंगे ,ड्यूटी पर अफसर की हत्या ,शक्तिशाली द्वारा साधनविहीनों को दबाना आदि क्या कुछ आजकल नहीं हो रहा है..अब तो हम हैं लेकिन क्या कर रहे हैं..

वर्त्तमान के हथौड़े से भूतकाल की लकीर पीट रहे हैं साथ ही अपना सर भी फोड़ रहे हैं…

जिसे बदला नहीं जा सकता , उसपर रो रो के एक सुन्दर सम्भावी भविष्य की परिकल्पना को भी कर्महीनता के कारण नष्ट कर रहे हैं..

1984 में निर्दोष सिखों को छुपी जगहों से खींच खींच कर ज़िंदा जला दिया गया..क्या वो मानव नहीं थे..

उन की बरसी पर कौन सामूहिक मातम करता है..

2002 में गोधरा में ट्रैन में जाते हुए बेकसूरों को जलाया गया और बाद में शहर की बस्तियों में रहने वाले मासूम इंसानों के साथ अमानवीय पाशविक कृत्य किये गए..

क्या उनकी याद में मातम किये जाते हैं…..

20008 ,11 और 13 में मुम्बई में ब्लास्ट हुए..और मुम्बई में ही क्यों सीरियल ब्लास्ट तो अब हमारे देश में त्यौहार की तरह मनाये जाने लगे हैं..

हाल ही में मुज़फ्फरनगर में प्रायोजित सांप्रदायिक दंगे हुए….आरोप सिद्ध नहीं हुए , लेकिन सब जानते हैं कि किस तरह मानवीय भावनाओं को ताक पर रख कर मुस्लिम नेताओं ने ही राजनैतिक स्वार्थ सिद्ध करने के लिए निर्दोष , गरीब मेव मुसलमानो को बेमतलब मरवाया… रुपये और शक्ति के बल पर पुलिस वालों का मुंह बंद किया और अपनी अपनी रोटियां सेकीं…

इन घटनाओं की विभीषिका क्या कर्बला की लड़ाई से कम है…

हम तब नहीं थे , इसलिए हसन , हुसैन को नहीं बचा सके , लेकिन अब हैं तो किसको बचा रहे हैं…

केवल खुद को बचा रहे हैं और अपना पल्ला झाड़ रहे हैं…

दंगों फसादों की स्थिति में खुद को सुरक्षित करते हुए घरों में बंद हो जाते हैं..पीड़ितों की मदद करते ज़रूर हैं लेकिन आग ठंडी हो जाने के बाद..

कर्बला के युद्ध में अपने न होने का अफ़सोस तो है लेकिन अपने होते हुए इस तरह की वीभत्स घटनाओं के घटित होने का अफ़सोस नहीं है…

हसन हुसैन की याद में सर पीटने वाले , खुद मुहर्रम के जुलूसों में ही, ज़रा सी बात पर पेच-ताब खा जाते हैं, और देखते ही देखते शिया -सुन्नी में ही कर्बला के युद्ध जैसा ही दृश्य उपस्थित हो जाता है..

ऐसे समय में ,ये अतीत की याद में अपने पुरखों की दुखद मृत्यु पर रोने वाले खुद अपने ही हाथों, अपने भाइयों की लाशें गिराते हैं…दंगों में बढ़ चढ़ के हिस्सा लेते हैं और मृत लोगो पर रो रो कर जीवितों का सर काटने के लिए तिलमिलाते छटपटाते रहते हैं..

मुझे दुःख होता है कि खामखा सलाखों से खुद को पीट कर ज़ख्म खा कर खून बहाने वाले, सेना में भर्ती हो कर यदि सीमा पर खून बहाएं तो शायद चीन और पाकिस्तान की नापाक देशविरोधी हरकतों पर रोक लग सके..
और सेना में नहीं तो किसी भी क्षेत्र में सकारात्मक कार्य करने के लिए अपनी ऊर्जा को बचा कर रखें..

मुझे विश्वास है कि सड़कों पर बहा हुआ अपने अनुयायियों का बर्बाद खून देख कर प्रोफेट मुहम्मद , हज़रत अली और हसन हुसैन की आत्मा खून के आंसू रोती होगी..

ज़रूरत एक जागरूकता की है, और एक सदियों पुरानी बेबुनियाद अनुचित परंपरा को रोकने के लिए सोचने की है..वर्ना कल को आने वाली पीढ़ी हमारे नाम ले कर भी नोहे गायेगी ..और हम बीते हुए समय की दुहाई देने में समय नष्ट कर, अपनी अकर्मण्यता को परंपरा का आवरण ओढ़ा कर अल्पविकसित ही रह जायेंगे…

महत्वाकांक्षा जब भीतर से आत्मा पर चोट करेगी तो झूठे संस्कार पैरों को बांध बैठे रहेंगे….हम आगे बढ़ने वाले समझदारों को तो देखेंगे लेकिन अपने पैरों की ज़बरदस्ती मोल ली गयी बेड़ियों को नहीं देख पाएंगे और छाती पीटकर रो रहे होंगे…

हाय हसन..
हाय हुसैन…
हम तब न हुए..
हम अब तो हैं..
पर बर्बाद हैं..
हम अब्दे खुदा,
हम खूने नबी, ,
हम खूने अली,
हम खूने हसन,
हम ज़हरा नसाब
हम शाहे ज़माँ….
हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं..
मरे हुए कल पे रो रो के आज को मारते हैं ….
हम बेकार हैं बर्बाद है..

हम पे सलामे करबला मातमी
हम पे सलामे शोहदा मातमी
हम पे सलामे सय्यदा मातमी
हम पे सलामे मुर्तज़ा मातमी
हम पे सलामे मुस्तफ़ा मातमी
हम पे सलामे बावफ़ा मातमी
हम अपनी अपनी माँओं की नज़रों के सुकून..
कब तक यही करते रहेंगे , बर्बाद हो के .
दिले ज़ैनबे कुबरा का चैन,
खुद पर कब रोवेंगे ज़हरा के सुकून…

या बस कहते रहेंगे कहते रहेंगे या हसन …या हुसैन…



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