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मनुष्य का जन्म बड़ा कठिन है.
जीवन छोटा, काम बहुत ज्यादा…
गलाकाट प्रतिस्पर्धा है,भागदौड़ है. हर काम महत्वपूर्ण ….सब की अलग -अलग स्थानजन्य महत्ता….
ऐसे में नवयुग के साथ समायोजन करने के लिए समय- नियोजन और प्रबंधन करना पड़ता है.
फिर अपनी जड़ों से जुड़े रहना भी ज़रूरी है. कहते हैं कि कितने भी ऊँचे उड़ो लेकिन पैर ज़मीन पर रखो.
हम कौन हैं, कहाँ के हैं, हमारे इस गौरवशाली इतिहास , परंपरा आदि का पता हमारी समृद्ध साहित्यिक सम्पदा से चलता है..
क्योंकि ..
साहित्य समाज का दर्पण होता है .
लेकिन सच्चाई ये है कि वर्तमान युग में केवल साहित्य की सेवा करके मनुष्य एक अच्छी जीवनशैली तो नहीं पा सकता है.
वैदिक काल तो है नहीं कि तब वेदों से ज्ञानार्जन करने और बाँटने वाले भिक्षाटन कर के पेट भर लेते थे . उस समय पांडित्य प्राप्त व्यक्ति को भिक्षा देना एक महान व पुनीत कर्तव्य समझा जाता था किन्तु आज के युग में ये दृग्विषय (phenomenon ) तो कल्पना से परे है.
आज तो भाषा के भीतर जीने वाले, इसी में लिखने , पढ़ने और बोलने वाले सत्ताहीन लेखक के जीवन की ओर देखिये , तो साफ लगता है कि राज-भाषा में ‘इमरजेंसी’ लागू है.
कुछ इन्ही कारणों से 1962 में “हिंदी साहित्य सम्मलेन एक्ट ” को संसद में मान्यता दी गयी . जिसके कर्तव्यों में हिंदी भाषा के प्रसार और इसे विकसित करने के तरीके, भारत और विदेशों में हिन्दी साहित्य के संवर्धन, विकास और उन्नति के लिए काम करने , ऐसे साहित्य मुद्रित और प्रकाशित करने वाले तथा हिंदी के हितों के लिए कार्य करने वाले विद्वानों को विशिष्ट पुरस्कार और मानद डिग्री दे कर सम्मानित करना और हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य में शोध को प्रोत्साहित करने के लिए प्रेरणा देना था.
भारत शायद इस मामले में विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जहाँ राजभाषा/ राष्ट्रभाषा को आज़ादी के 67 वर्षों के बाद भी प्रचार और प्रसार की आवश्यकता है.
इस दुर्दशा का ज़िम्मेदार कौन है..???
पचास साल पहले एक्ट बनाने वाले….???
सम्मलेन का आयोजन करने वाले..???
या अभी तक हिंदी भाषा के महत्त्व को न समझने वाले…???
…. जिन के कारण हमें अपने ही देश में अपनी ही भाषा के प्रसार और भाषाविद गुणीजनों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता पड़ती है.
सदियों तक भारतीयों पर कभी मुगलों ने तो कभी अंग्रेजों ने शासन किया. प्राचीन युग में हमारा साहित्य बेहद समृद्ध था. भारत के सुन्दर दार्शनिक विचारों, ग्रंथों और अन्य मूल्यों का अध्ययन करने आने वाले विदेशी यात्रियों ने अपने ग्रंथों में हमारी मूल्यवान विद्या का उल्लेख किया है.
फिर हम आक्रान्ताओं के चपेटे में पड़े..उन जाहिलों ने ग्रंथों की कीमत नहीं समझी ..हीरे जवाहरात ले गए और अनमोल विद्या को जलन में आ कर नष्ट कर दिया..
फिर मुगलों ने आ कर देश को अपने हिसाब से सँवारना शुरू किया और अरबी, फारसी तथा उर्दू भाषा का चलन हुआ…
फिर आयी ब्रितानियों की बारी…उन्हें ये देश इतना पसंद आया कि उनहोंने अपनी रणनीति के तहत यहाँ के नागरिकों को ऐसी शिक्षा देनी शुरू की कि वे अंग्रेजी राज के क्लर्क बन के रह जायें और इस से ऊँचे उठ ही न सकें.. इस तरह इंग्लिश का बोलबाला होने लगा…
इन सब चाल-पेंचों के बीच हमारी अपनी हिंदी कहाँ गुम हो गयी कुछ पता ही नहीं चला.
ऐसे में जिन उद्देश्यों को लेकर एक्ट बनाया गया था वो निश्चित रूप से उस समय की आवश्यकता थे .
गलती तो उनकी है जो गुलामी से अनुकूलन कर चुके हैं , अंग्रेजों को तो भगा दिया लेकिन अब अंग्रेजी की गुलामी कर रहे हैं. ये वो लोग हैं जिनको हिंदी न आती है, न सीखना चाहते हैं, लेकिन यदि निष्ठावान हिंदी साहित्यकार सरकार द्वारा प्रतिवर्ष सम्मानित किये जाते हैं तो हाय तोबा मचा कर दिखावा करते हैं …
क्या बुरा है अगर जीविकोपार्जन में फंसे हुए सामान्यजन “हिंदी पखवारे” के चलते हिंदी साहित्य से अपडेट होते हैं. अच्छे बुरे हर प्रकार के विचारों का खुलासा होता है. देश में ही नहीं विदेशों तक हिंदी सम्मलेन और हिंदी साहित्य पर चर्चा होती है..भाषा को उन्नत करने के लिए शोध-विचार होते हैं .
सम्मानित किये जाने पर साहित्यकार में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है.इन बातों को चाय -नाश्ते या सम्मान की धन -राशि से जोड़ने वाले उस पल के रोमांच को कभी नहीं समझ सकते हैं…
शायद ऐसे ही किसी भावातिरेक में ,सन 2006 में ,सुदूर विदेश में आयोजित हिंदी सम्मलेन में हिंदी के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करते करते मूर्धन्य साहित्यकार व समिति के अध्यक्ष श्री कमलेश्वर जी रो पड़े थे…
ज़रा सोच कर देखिये…
हम वर्ष में एक ही बार होली, दीवाली मनाते हैं..
नवरात्रों में ही माँ दुर्गा का पूजन करते हैं…
पितृ पक्ष में ही पितरों को श्रद्धांजलि व सम्मान देते हैं..
वर्ष में एक ही बार जन्मदिवस मनाते हैं …
तो क्या शेष दिनों में इन बातों का कोई महत्व नहीं रह जाता …??
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