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हिंदी गर्व की भाषा है…..Contest

Sincerely yours..
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आइये हम एक घिसे पिटे वाक्य के साथ अपनी बात शुरू करें..
“हिंदी हमारी मातृभाषा है और हमें इस पर गर्व है.”


ये एक ऐसी ही शपथ है जैसे लीडर संसद में पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं , डॉक्टर मरीजों की निस्वार्थ सेवा के लिए हिपोक्रेटिक शपथ लेते हैं, या विवाह के समय पति/पत्नी निष्ठा की शपथ लेते हैं.

जिस समय यह वचन मुंह से निकलते हैं, मन में अथाह गर्वमिश्रित स्वाभिमान हिलोरें लेता रहता है, परन्तु कालांतर में ये भावनाएं कहीं धूमिल पड़ जाती हैं.
इसी प्रकार कहने को तो हम भारतवासी अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के लिए सम्मान प्रदर्शित करते तो हैं परन्तु अंग्रेजी के प्रति एक अजीब सा आकर्षण रहता है. कह नहीं सकते कि ये चोर भाव मन में कहाँ से उपजता है.

अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए हमें 67 वर्ष बीत गए लेकिन हम अभी तक खुद को स्वत्व का सम्मान करना नहीं सिखा पाए.

वास्तव में पहले अंग्रेजी शिक्षण महंगे पब्लिक स्कूलों में ही उपलब्ध होने के कारण केवल अभिजात्य वर्ग के बच्चे ही इन स्कूलों में प्रवेश ले पाते थे . नए नए आजाद हुए देश में व्यक्ति के सामने जीविका बहुत बड़ी समस्या थी . ऐसे में सामान्य व्यक्ति के लिए ऐसे स्कूलों में अपने बच्चो को पढ़ाना किसी मृगमरीचिका से कम न था. शायद उसी समय से अंग्रेज़ीभाषी भारतीय उच्चवर्गीय समझा जाने लगा.अंग्रेजी बोलने का कान्वेंटी लहजा ही हिंदीभाषियों के मन में हीनता के भाव उपजाने के लिए काफी होता है


अपनी भाषा को हीन समझना हमारी अपनी कमतर सोच है.

हिंदी एक समृद्ध भाषा है. यही विश्व की एकमात्र ऐसी भाषा है जिसमे व्यंजन को बिना किसी अन्य व्यंजन या स्वर की सहायता से उसके वास्तविक उच्चारण के रूप में बोला जाता है . साथ ही हिंदी भाषा का व्याकरण भी वैज्ञानिक होने के कारण उसे समझना आसान है .

अंग्रेजी भाषा का व्याकरण सधे हुए नियमों पर आधारित नहीं है. वहाँ “BUT ” अगर बट होता है तो “PUT” अकारण ही पुट हो जाता है. वचन और लिंग सम्बन्धी नियम भी बहुत स्पष्ट नहीं हैं और कई नियमों के अपवाद भी होते हैं . फिर भी अंग्रेजी भाषा के लिए हम घोषित हिन्दीभाषी अत्यधिक लालायित रहते हैं.


वास्तव में हिंदी को स्वतन्त्र भारत की राजभाषा घोषित करते समय ही उसके साथ लापरवाही की गयी.

संविधान निर्माताओं ने संविधान के निर्माण के समय राजभाषा विषय पर विचार-विमर्श करके यह निर्णय लिया कि देवनागरी लिपि में हिंदी को संघ की राजभाषा के रूंप में अंगीकृत किया जाए । इसी आधार पर संविधान के अनुच्छेद 343(1) में हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया। किन्तु, संविधान के निर्माण के समय यह परिकल्पना की गई थी कि संघ के कार्यकारी, न्यायिक और वैधानिक प्रयोजनों के लिए 1965 (15 वर्षों ) तक अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहे.


दरअसल समिति में शामिल कुछ दक्षिण -भारतीय सदस्यों ने अपने क्षेत्र वासियों के हिंदी का अल्प ज्ञान होने को मद्देनज़र रखते हुए ऐसे प्रावधान की मांग की थी. ताकि इन 15 वर्षों में हिंदी भाषा ,अहिंदी भाषी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों द्वारा व्यापक रूंप से स्वीकार किए जाने की क्षमता प्राप्त कर सके।


बस यहीं चूक हो गयी.


यह एक कटु सत्य है कि हम भारतवासी सदियों से गुलामी में रहते रहते आजाद होने के बाद भी मानसिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है. जब तक कोई कानून कड़ाई से लागू न किया जाये तब तक आम तौर पर भारतवासी उसका पालन नहीं करते हैं.(इस कथन की सत्यता 1975 में आपातकाल के दौरान देश के सुचारू परिचालन से सिद्ध होती है . )


वैसे भी नियम बना कर पालन करवाना अलग बात है और मन में सम्मान रखना अलग..


जब तक एक एक भारतवासी स्वयं अपनी राजभाषा हिंदी को आदरणीय स्थान नहीं देगा तब तक डंडा मार कर हिंदी को सम्मान नहीं दिलाया जा सकता.


हमारे देश में लोग अपनी आंचलिक बोली को तो बहुत प्रेम करते हैं. किसी भी राज्य या क्षेत्र विशेष के लोग जब कहीं मिलते हैं तो बहुत ही अपनत्व के साथ अपनी आंचलिक भाषा में बात करते हैं परन्तु यही प्रेम व सम्मान हिंदी के लिए क्यों नहीं जगता , ये बात समझ से परे है.


सोचने वाली बात है कि वैश्वीकरण के इस युग में कोई भारतवासी अपनी प्रतिभा के बलबूते पर सुदूर विदेश में यदि अपने देश का प्रतिनिधित्व करने जायेगा तो वहाँ उससे आंचलिक बोली (dialect ) के बजाय राष्ट्रभाषा हिंदी बोलने की अपेक्षा की जाएगी.


1893 में , भारत अंग्रेजी दासता की बेड़ियों में जकड़ा था. फिर भी युगपुरुष स्वामी विवेकानंद जी ने शिकागो सम्मलेन में अपार जनसमूह को हिंदी में “भाइयों और बहनों ” कहने का साहस कर दिखाया. ये अपनी भाषा के प्रति मान ही था जिसने उन्हें ये निर्भयता प्रदान की.लेकिन आज जब हम हर प्रकार से समृद्ध हो चुके हैं तो भी अपने ऊपर गर्व करने का साहस क्यूँ नहीं कर पाते.


वैसे भी हंसने बोलने के लिए मित्रों के जमावड़े (अन्य भाषाओँ ) की आवश्यकता भले ही हो लेकिन रोने के लिए तो माँ के आंचल (मातृभाषा ) की ही याद आती है.


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