Menu
blogid : 7725 postid : 209

“यदा कदा सदा सत्य बोलो”

Sincerely yours..
Sincerely yours..
  • 69 Posts
  • 2105 Comments

बचपन में , में हमें सुलेख लिखने को कहा जाता था…
हमारी हिंदी की टीचर का एक बड़ा ही प्रिय वाक्य था…..

“सदा सत्य बोलो “


कक्षा में घुसते ही, वो ब्लैक बोर्ड पर सुन्दर सधे हुए अक्षरों में यह वाक्य लिख देतीं… हमें घंटे भर इसी को अपनी कॉपी में सुन्दर सुन्दर अक्षरों में उतारना होता था और उन्हें अपनी दूसरे क्लास की कॉपियाँ चेक करनी होती थीं …


तब हमें यह नहीं पता था कि सदा सत्य बोलने से क्या होगा…उन्हों ने कभी बताया ही नहीं….ना समझाया…बस कभी अचानक प्रिंसिपल के क्लास में आ जाने पर वह हाथ की कॉपी दराज़ में डाल कर हमसे मौखिक प्रश्न पूछने लगती थीं…अब हमें क्या पता था कि जो हम कॉपी में लिख रहे हैं वो ज़िन्दगी में उतारना भी होता है…हम तो उस समय पूरे ब्रह्माण्ड को ही अपना स्कूल समझते थे…कब सोये, कब जागे, क्या खाया, कितना हँसे, क्यूँ रोये ….जब इन बातों का हिसाब ही नहीं रहता था तो “सदा सत्य बोलो ” का हिसाब कौन रखता..


और फिर स्कूल से आ कर जब बस्ता फेंका तो दूसरे दिन स्कूल जाते समय ही उस पर हाथ लगता था…अगर घर आ कर भी पढाई करते तो फिर घर के बगल वाले मैदान में “विष अमृत ” कौन खेलता.???? रेलवे क्रॉसिंग के बंद गेट पर चढ़ कर ,गेट खुलने पर हवाई जहाज का आनंद कौन लेता…?? गिट्टी की सड़क के किनारे बने हुए चौड़े नाले को , कॉलोनी के बच्चों के साथ फांदने का “कॉम्पटीशन ” कौन करता..?? रात को थक हार कर लकड़ी के चूल्हे के सामने रोटी बनाती हुई दाई माँ के कुछ कजरी और कुछ फ़िल्मी गीत सुनते हुए हम वहीँ गिर गिर के सोने लगते….तब….अगले दिन स्कूल में पूछा जाता “होम वर्क क्यूँ नहीं पूरा है…???” तो आप क्या सोचते हैं….हमें  “सदा सत्य बोलो ”   याद आता…..??


फिर अचानक हमारे दुर्दिन आ गए और पता नहीं कहाँ से हमें पढने का चस्का लग गया….

दरसअल गर्मी की छुट्टियों में दोपहर में घर से निकलने की मनाही हो गयी..

“बैठा बनिया क्या करे…इस कोठरी का धान उस कोठरी करे…”

स्टोर रूम के टांड पर हमारा अड्डा होता…आह…क्या अथाह भंडार था किताबों और पत्रिकाओं का…पहले दिन तो उत्सुकता में चढ़े , फिर दरी और तकिया लेकर जाने लगे…..हमें भी आराम और घर भर को भी आराम….लेकिन वहीँ से हमारे दिन बदल गए….ठंडी सी जगह , गर्मी की दोपहर में अब ए सी रूम में भी कभी वो आनंद नहीं आया जो तब आता था…


उस आठ या नौ साल की उम्र में ही मुंशी प्रेमचंद्र, शरतचंद्र, रविन्द्रनाथ टैगोर , जैनेन्द्र, यशपाल, देवकीनंदन खत्री, मैक्सिम गोर्की, चेखव… सब हमारे साथी हो गए…हाँ जब नीचे सब सो जाते, तो “गुलशन नंदा” और “रानू” भी मेरी मित्र मंडली में शामिल हो जाते…सच तो यह है कि प्रेमचंद्र, रानू और गुलशन नंदा को छोड़ कर कोई और समझ में भी नहीं आता था..कुछ कहानियां तो ऐसी भी पढ़ीं जिनके लेखक का नाम याद नहीं पर कहानी याद है जैसे…”डाची ” “शरणागत ” “बुरे फँसे ” “किनारों के जहाज ” आदि आदि….

कहानियों , उपन्यासों तक तो ठीक था, लेकिन उन्हें चाटने के बाद दूसरी शिक्षाप्रद किताबों की भी बारी आई……

उन किताबों को पढ़ते पढ़ते हमें हर किताब में एक समानता दिखाई दी…..हर जगह यही कहा गया था कि सत्य बहुत अच्छी चीज़ होती है और इसे हर हाल में अपनाना चाहिए…..साथ ही साथ एक और भी समानता दिखाई दी…..वो ये कि सभी जगह सत्य अपनाने वाले का बुरा हाल होते दर्शाया गया था…..मेरे सामने न जाने कितने उदहारण खड़े थे…..ईसा मसीह, सुकरात, गैलीलियो, हज़रत मुहम्मद, महर्षि दयानंद, खलील जिब्रान,..आदि इत्यादि…


दुनिया ने इन में से किसी की भी सचाई को स्वीकार नहीं किया और उन्हें बुरी तरह प्रताड़ित कर के सरे आम ज़लील करके मरने पर मजबूर किया…..फिर भी मैं ने सोचा कि जब किताब में लिखा है तो गलत तो होगा नहीं..मुझे भी अपनाना चाहिए……लेकिन बड़े ही खेद के साथ कह रही हूँ कि .”My experiments with truth ” कुछ सही नहीं रहे….
स्कूल में, ट्रेन में, परिचितों के घर पर , अपने क्लासमेट या माता पिता के मित्रों के साथ.. सत्य बोलने का परिणाम कुछ अच्छा नहीं रहा..

मेरी रिसर्च उसी उम्र से शुरू हो गयी……मैं कोई भी बात पढ़ती …, उसे अपने ढंग से विश्लेषण करती और फिर प्रयोग करके अपना निष्कर्ष निकालती….और दुःख की बात है कि मेरा यह शोध अभी तक पूरा नहीं हुआ, चल ही रहा है..
.अब एक एक परिकल्पना, परीक्षण, अवलोकन , आकलन आदि का वर्णन तो यहाँ कर नहीं सकती, लेकिन मैं ने बहुत सारी पुस्तकों में “सत्य ” के ऊपर कहे हुए जितने भी कथन, मुहावरे, श्लोक आदि पढ़े हैं वो मुझे पूरी तरह सही नहीं लगे…..और मैं ने उन्हें अपने ढंग से परीक्षित करके .कुछ सुधार किया है….

यहाँ मैं अपना “शोध- प्रबंध ” आपके सामने प्रस्तुत करना चाहती हूँ….


1 – कथन – “सदा सत्य बोलो ”
सही रूप- “यदा कदा सदा सत्य बोलो “


2 – कथन – “सत्यमेव जयते ” अर्थात सत्य की सदा विजय होती है.
सही रूप- “जिसकी विजय हो जाये समझो वही सत्य है “


3 -कथन – “सत्यम ब्रूयात प्रियं च ब्रूयात ” अर्थात जो सुनने वाले को अच्छा लगे वही सत्य बोलिए.
सही रूप- जो सुनने वाले को अच्छा लगे वही बोलिए, उसका सत्य होना ज़रूरी नहीं है.


4 -कथन – “सत्यम शिवम् सुन्दरम ” अर्थात सत्य ही सुन्दर तथा कल्याणकारी होता है.
सही रूप- अपना कल्याण करिए और उसे एक सुन्दर सा सत्य बना कर प्रस्तुत करिए.


5 -कथन – “किसी की जान बचाने के लिए सत्य के स्थान पर झूठ बोला जा सकता है.”
सही रूप- अपनी जान छुड़ाने के लिए सत्य के स्थान पर झूठ बोला जा सकता है.


और भी कुछ परिकल्पनाएं हैं जिनको मैं परीक्षण करके सिद्ध कर चुकी हूँ…


1 – यदि सत्य बोलने की गुंजाईश न हो और झूठ बोलने का मन न हो तो “नहीं जानते ” के स्थान पर “नहीं बता सकते ” कहना चाहिए. इस तरह आप किसी बात को जानते हुए भी, सत्य के पथ पर अडिग रहते हुए, अनजान बने रहने का ढोंग कर सकते हैं.


2 – “एक झूठ छुपाने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं” ….तो इसी कथन को सौ प्रतिशत “सच ” मानते हुए अपनी याददाश्त को मज़बूत रखिये…


3 – “सच बोलने के लिए साहस चाहिए”…. ऐसा बिलकुल भी नहीं है, साहस तो अपने बारे में कहे गए सत्य को बिना धैर्य खोये हुए सुनने और उसे स्वीकार
करने, के लिए चाहिए.


4 -यदि कोई व्यक्ति सदा आपकी प्रशंसा (या दूसरे शब्दों में चापलूसी ) करता रहता है तो अपने बारे में उसकी सही सही भावनाएं जानने के लिए उसे थोडा सा गुस्सा दिला दीजिये..


5 – जिस तरह फलों व सब्जियों को प्रयोग से पहले अपने हिसाब से धो कर व काट छांट कर अपने लायक बनाया जाता है, थान के कपडे को पहनने योग्य बनाने के लिए काट कर अलग अलग जगह से जोड़ना पड़ता है, उन्हें हम उनके प्राकृतिक रूप में नहीं अपना सकते….उसी प्रकार सत्य को भी अपनाने से पहले उसके प्राकृतिक रूप को काट छांट कर , टुकड़ों को जोड़ा जाता है, तभी वह अपनाने योग्य होता है.


6 – “महिलाएं चाहे जितना सच बोल लें पर अपनी उम्र के मामले में कभी सच नहीं बोलतीं..” ये बात सरासर गलत है, महिलाएं हिसाब की बेहद पक्की होती हैं..वे अगर अपनी उम्र के कुछ वर्ष कम कर के बताती हैं तो उसे अपनी सहेली /ननद की उम्र में जोड़ देती हैं.. और अगर अपने बच्चे की उम्र के कुछ वर्ष कम बताती हैं तो उन्हें रेडीमेड कपडे खरीदते समय जोड़ कर बढ़ा देती हैं…


7 – “सत्य कभी नहीं छुपता है ” सोलहो आने खरी बात है, इसलिए अपना सच कभी खुद सामने लाने की कोशिश न कीजिये. और अगर कभी भावना वश किसी को कुछ बता ही दिया तो जेम्स बांड का मशहूर डायलॉग याद रखिये…..

“If I tell you, I would kill you…..”



तो यह है मेरा “शोध प्रबंध”…आप के भी अनुभवगत सुझाव आमंत्रित हैं…..


Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh