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मेरी बेटी , मेरी पहली संतान मुझसे हमेशा पूछती है ….
“माँ , जब तुम ने पहली बार मुझे देखा तो कैसा लगा था ..??”
मैं हर बार उसे उलटे पुल्टे अजूबे जवाब देती … कभी कहती , “मुझे करेंट जैसा लगा” , कभी कहती “इतनी तकलीफ सहने के बाद बेटी मिले तो भला कैसा लगेगा…”…या यूँ ही हंसी मजाक भरे जवाब ..वो भी हंस देती थी, जानती है कि शब्दों की सजावट न करते हुए भी वो मुझे कितनी प्यारी है….
लेकिन ……लेकिन , मैं जानती हूँ कि उसका हर बार पूछा गया ये सवाल मुझे कितनी उलझन में डाल जाता था ..मैं याद करने की कोशिश करती कि क्या वास्तव में पहली संतान के रूप में बेटी को गोद में देख कर मुझे उतनी ही ख़ुशी हुई थी जितनी बेटे को देख कर होती ..मैं भरसक ईमानदार होने की कोशिश करती हूँ तो याद आता है कि उस के पैदा होने के नौ महीने पहले से ही मेरे मन में कभी एक बार भी ये ख्याल नहीं आया कि मुझे बेटी होगी , बेटा नहीं…मैं अपने आने वाले बच्चे के रूप में एक बेटे की ही कल्पना करती थी और साथ में मेरा पूरा घर भी …
दरअसल इस के पीछे कोई छोटी दकियानूसी सोच नहीं थी , बस ये एक स्वचालित प्रक्रिया की तरह अपने आप हुआ ..हमारे समाज में अवचेतन रूप से ही सही , लेकिन पुरुष का प्रभुत्व तो माना ही जाता है. तभी तो हमारी बोल चाल भी ऐसी ही हो जाती है… .
लोग कहते कि ” बच्चा होने वाला है..”(कोई ये नहीं कहता था कि बच्ची होने वाली है.)
चेकअप के समय डॉक्टर पूछती थी …”बच्चा घूमता है..??”(उन्हों ने ये कभी नहीं पूछा कि बच्ची घूमती है..??)
घर में काम करने वाली दाइयाँ कहती थीं..(दुलहिन के चाल देख के बुझात है , लड़का होखे …. )
और तो और एक बार मेरी डॉक्टर तक ने कह दिया कि ” वैसे तो साइंस इस बात को नहीं मानती, लेकिन आपके सारे लक्षण लड़का होने के हैं.. ”
अब आप ही बताइए…अगर मैं अपनी गोदी में खेलते एक नन्हे मुन्ने बेटे का सपना देखने लगी थी तो क्या गलत था …??
आखिरकार सपने के पूरे होने का दिन भी आया…मेरी सारी रिपोर्ट्स नॉर्मल होने के बावजूद अंतिम समय में अचानक किसी गड़बड़ी की वजह से डॉक्टर्स को ऑपरेशन का फैसला लेना पड़ा…
मेरा ब्लड ग्रुप AB (-)….पूरे लखनऊ के ब्लड बैंक छानने के बाद बड़ी मुश्किल से सिर्फ एक यूनिट ब्लड मिला …खैर उस की कोई बात नहीं, लेकिन जब मुझे होश आया तो देखा कि बगल वाले बेड पर गुलाबी कपडे में लिपटा एक छोटा सा खिलौना जैसा कुछ था….मेरी छोटी ननद उसे देख कर कह रही थीं …
“गोरी तो है….”
गोरी तो है…….??
“गोरी” शब्द मेरे कानों में हथौड़े जैसा पड़ा…ये क्या…?? मैं ने सोचा…जो “गोरा” होना था वो “गोरी” कैसे हो गया..?? मुझे लगा कि मेरी ननद मुझसे मजाक कर रही है लेकिन सच्चाई तो यही थी….मैं ने देखा कि मेरे घर के सब लोगो ने हॉस्पिटल में धमाल मचा रखा था..सब की ख़ुशी का ठिकाना न था ..पूरे 20 सालों के बाद घर में बच्चा आया था..जी हाँ “बच्चा ” …न लड़का , न लड़की …सब को सिर्फ एक बच्चे , एक खिलौने से मतलब था…लेकिन मेरा चोर मन मुझ से कह रहा था कि ये लोग मेरा मन रखने के लिए दिखावा कर रहे हैं…
आप ये मत समझिये गा कि मुझे बेटे की चाह थी और बेटी होने का दुःख था..ऐसा कुछ नहीं था , सिर्फ नौ महीनों की सोची हुई बात के अचानक पलट जाने से मस्तिष्क कुछ एडजेस्ट नहीं कर पा रहा था…
इसी लिए आज जब मेरी बेटी खुद भी ये बात जानती है कि वो मेरे लिए क्या है, फिर भी लाड़ में पूछती है..
“माँ, मुझे पहली बार देख कर तुम्हे कैसा लगा ..??”
तो मैं एकबारगी कुछ जवाब नहीं दे पाती हूँ..
उस से ढाई बरस का छोटा मेरा बेटा , अक्सर जब मुझे परेशान करता है , या मेरी बातों की अनसुनी करना चाहता है तो वो मुझसे पूछती है…”मेरे बदले में यही नालायक बेटा चाहती थीं आप..??” दोनों भाई बहनों में मेरी नज़रों में ऊँचा उठने की होड़ मच जाती है लेकिन होता वही है…. भावनात्मक रूप से माँ बाप से ज्यादा लगाव रखने के कारण ऐसी लड़ाइयों में अक्सर बेटियां ही जीत जाती हैं….
16 जुलाई को मेरी बेटी का जन्मदिन है…आज वो B .E . की डिग्री ले कर इंजीनियर बन चुकी है लेकिन हर जन्मदिन पर उसकी ओर से यह यक्ष प्रश्न मेरे सामने ज़रूर आता है….
“मुझे पहली बार देख कर कैसा लगा था माँ…??”
उसकी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मैं ने उसके पिछले जन्मदिन पर ये कविता लिख कर गिफ्ट की…देखना है इस बार वह संतुष्ट मिलेगी या फिर वही प्रश्न सामने आयेगा……
“मुझे देख कर तुम्हे कैसा लगा था माँ…??”
आज के दिन अनोखी हुई थी बात कोई,
मैं ने खुद को ही खुद से दी थी सौगात कोई,
जिस तरह कोई मुस्कुराये आईने में देख अक्स अपना .
मैं मुस्कुरायी अपनी गोदी में देख कर उसको ,
कहाँ गयी चुभन सुई की , ज़ख्म नश्तर का,
मैं गयी भूल भयानक वो दर्द का मंज़र,
नर्म ,नाज़ुक, गुनगुने होठों की वो पहली छुअन,
यकीन तब कहीं आया कि अब मैं एक माँ हूँ,
मेरी जुही की कली, वो मेरी मासूम परी,
उसी की शक्ल में लगता है, हाँ मैं जिंदा हूँ…
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