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मुझे कविताकारों से जलन होती है……..
जब देखती हूँ कि इधर विषय देने की देर नहीं और उधर मिनटों में कविता तैयार…ऐसा लगता है कि शब्दों को किसी प्रोसेसर में डाल देते हैं…तापमान की तरह भाव सेट कर देते है …और बटन दबा कर कविता ले लेते हैं……..तो मैं हीन भावना से ग्रस्त हो जाती हूँ….
खुद इसी मंच पर ऐसे कई महान कविताकर शोभायमान हैं जिनकी रचनाधर्मिता को बस चिंगारी लगने की देर है और आग की लपटों की तरह कविता की ज्वाला से वातावरण तप्त हो जाता है….
मैं इस मामले में फिसड्डी हूँ…अपने आप कुछ बन जाये तो सही, लेकिन कोई तमंचा तान कर (अर्थात विषय दे कर ) कुछ लिखने को कहे तो मेरी घिघ्घी बंध जाती है..जान पड़ता है कि मैं “लिख लोढ़ा पढ़ पत्थर ” के सिवा कुछ भी नहीं जानती…
पिछले दिनों मुझे किसी ने कहा कि “गाँव ” पर कविता लिखो…
मैं मूक-बधिर हो गयी….
गर्मी की छुट्टियों में, गाँव के मज़े बचपन में बहुत उठाये हैं… पेड़ों पर रस्सी तो बाद में बँधती थी, पहले हम डालें पकड़ कर ही झूला झूल लेते थे….गन्ने का रस पेरने के लिए बैल के साथ साथ खुद भी चक्कर काटे हैं..फिर बाद में प्यासे बैलों को पानी पिलाने के लिए कुँए से न जाने कितनी बाल्टी पानी खींच कर हौज़ में फेंका है ….और चारे के लिए कुट्टी भी काटी है…….और तो और हाथों को प्लास्टिक पैकेट में डाल कर कंडे भी पाथे हैं……
जामुन और अमरुद के पेड़ों पर “कमज़ोर डाल” होने की चेतावनी मिलने के बावजूद हम भाई बहन नमक की पुड़िया जेबों में रख कर , चढ़ जाते थे और डाल के फल नमक लगा लगा कर खाते थे…..तब तो ये होश ही नहीं रहता था कि फलों को धोना भी चाहिए……….पेड़ के फल तो फिर भी ठीक हैं…..हम तो सड़क के किनारे उगी हुई, तीन पंखुरियों वाली, हरी हरी “खटमिठिया ” की पत्तियां भी तोड़ कर खा जाते थे और कभी पेट में दर्द तक नहीं हुआ…….
और अब……….
गाँव में यह दृश्य कहीं दिखते ही नहीं हैं…….घर घर टी वी है..बच्चों को खुली हवा में खेलना नसीब ही नहीं है, या यूँ कि हम ने ही उनके नसीब से यह सुख छीन लिया…..विज्ञान ने पारंपरिक चीजों को धकेल कर कहीं गहरे गड्ढे में डाल दिया….हवा , पानी , सब्जी, अनाज ….सब पर रसायनों की छाप है..
लैया , चूरन, सेव की जगह अब बच्चे दुकानों पर गुटका खरीदते हैं….गीत गाने के बजाय गाली गलौज सीखते हैं …..
आपसी प्रेम विश्वास और भाई चारे की भावना को प्रधानी के चुनावों ने समाप्त कर दिया……………….गाँव पर क्या लिखूं , कुछ समझ ही नहीं आता….
गाँव अब हैं कहाँ , बचे हैं सिर्फ अफसाने,
मैं क्या लिखूँ कलम चलाऊँ क्या खुदा जाने ..
मिसरी और गुड़ ख़तम, बिस्किट वहाँ भी जा पहुँचा ,
घड़े के पानी में क्या क्या ज़हर है क्या जाने ..
खेतों में हल की जगह ट्रैक्टर अब चलते हैं,
इसी लिए तो बैल पहुँच जाते हैं बूचडखाने ..
दिलों के प्यार, वो शफ़क़त वो राम रहीम का मेल,
असलियत दिखती है प्रधानी के चुनावों में..
न वो पनघट, न गोरियाँ , न पायलों की छनक,
जान दे बैठीं वो सब अस्मतें बचाने में..
आम पेड़ों पे हैं पर बिक चुके हैं पहले से,
अब तो कोयल भी कुहुकते लगी है सकुचाने..
हाँ कुछ खोया है मगर पाया भी बहुत कुछ है,
ये क़ीमत दी है हमने या दिए हैं हर्जाने..
सवा अरब का पेट भरना कोई मज़ाक नहीं ,
इसी मिटटी से उगाने हैं इतने दाने..
खेतों में खाद पड़ी ताकि पैदावार बढे,
वो ज़हर मिल गया पानी में जा के कब जाने..
कुओं में पम्प लगे ताकि खेत सब्ज़ रहें,
और साथ साथ हवा स्याह पड़ गयी जाने..
शहर जाते हैं नौजवान नया इल्म लाने,
फोन पर हाल जब लिया तो माँ को चैन पड़ा..
मगर बेतार की लहर की ज़द में गौरैया,
और उस की पीढियाँ ख़तम हो चलीं क्यूँ जाने..
यहाँ तक आ के लौटना बड़ा ही मुश्किल है,
सबर करें कि जहाँ हैं वहीँ पे रुक जायें..
जो खो दिया उसे पाना तो अब कहाँ होगा,
जो हाथ में है वो फिसल जाये न कहीं जाने….
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