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बस यूँ ही………

Sincerely yours..
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मुझे शायरी करना पसंद नहीं है…


दरअसल शायरी करना कमज़ोर होने की निशानी होती है. मुझे ऐसा लगता है कि जब किसी को अपनी बात किसी दूसरे के सामने कहने की हिम्मत नहीं होती है..तब वो अकेले में बैठ के रोता गाता है और अपने जज्बातों को कविता का रूप देता है….तभी तो जितने भी महान से महानतम शायर आज तक हुए हैं …ग़ालिब, फैज़, मजाज़, साहिर, फ़िराक़…सब के सब अन्दर से चोट खाए हुए, टूटे हुए, …अपनी बात दुनिया से कह नहीं पाए तो अकेले मे बैठ कर रोया किये ……और उन के आंसुओं के मोतियों को हम रंग-ए-सुखन , गोहर-ए-नायाब, ग़ज़ल-ए-बेहतरीन जैसे विशेषणों से नवाज़ कर उनकी बेबसी का मजाक बनाते हैं…


ज़रा सोचिये ये कितने आसान काम के बदले कितना मुश्किल काम मोल लेना है……जो बात आप आसानी से कैसी भी भाषा में अटक के , हिचक के ,कैसे भी कह सकते थे , उस को कह पाने की हिम्मत न जुटा सकने की ज़रा सी कमजोरी के कारण आप को लय , ताल , मात्रा , छंद अदि के कठोर नियमों में बंधना पड़ता है……..


लेकिन एक बात तो है…….वो कहते हैं ना कि जो चीज़ कष्ट सह के मिलती है…वो उतनी ही लाजवाब होती है, ..जितना ही तपे , उतना ही खरा सोना…..जित
ना खौलेगा,उतना ही यकजा (concentrated) होगा…और उतना ही असरकारक…….

इसी लिए तो मैं शायरी के कॉन्सेप्ट को नापसंद करते हुए भी उसके असर से इंकार नहीं कर सकती …शिकस्ताउम्मीद शायरों पर चाहे ग़म के जितने पहाड़ टूटे थे , लेकिन वो जो लिख गए , साल दर साल गुज़र जाने के बाद भी मौजूं है….


एहसास तब होता है जब खुद पर गुज़रती है….तब लगता है कि यही तकलीफ उन पर भी गुजरी होगी तब उनके दिलसे ये आह निकली होगी…


कभी कभी ग़ालिब को पढ़ती हूँ तो मैं खुद को ग़ालिब समझने लगती हूँ…ऐसा लगता है कि यही दर्द तो मेरा भी है…मेरे दिल की बात उन्हों ने कैसे कह दी….सोचती हूँ कि……….


जो ग़ालिब थे , मेरे जैसी ही उन पर भी गुज़रती थी,
अगर और जीते वो तो उनको क्या मिला होता….


डुबोया हम दोनों को अपने अपने जैसे होने ने,
वो न होते तो क्या होता , मैं न होती तो क्या होता….


जो बने हैं दोस्त नासेह, वही दोस्त बावफा हैं,
कहाँ हमें था अच्छा होना , जो वो चारासाज़ होता….


कोई फर्क अब नहीं है , शबे वस्ल हो या फुरकत,
ऐसे भी मर रहे हैं , वैसे भी मरना होता…..


कुछ और भी लाइनें हैं जो लाख सर झटकने के बाद भी दिमाग में आ ही गयीं…मैं ने चाहा नहीं ….बस यूँ ही…….


वो वफागर न हुआ इस में उस का दोष ही क्या,
मेरे ही प्यार में कुछ नुक्स पाए जाते हैं…..


मैं जिसे अपना कहूँ उसकी वफादारी को,
मेरी चाहत के जरासीम खा जाते हैं…..


जाने अहबाब थे मेरे वो या कि चूहे थे,
इधर हम डूबते हैं, उधर वो भागे जाते हैं…..


आप भी आइये सर फोड़ लीजिये अपना,
बुतों का शहर है, याँ पत्थर ही पाए जाते हैं…..


हम वो मेंहदी हैं , जिन नाखूनों के सर चढ़ जायें,
कट भी जायें तो मेरा रंग न छुड़ा पाते हैं…..


आज बस इतना ही, कुछ और भी है काम ज़रा,
रोज़-ओ-अय्याम की गर्दिश है, अभी आते हैं ……….



आदरणीय निशा जी , कुशवाहा जी, संतोष भाई, और आनंद प्रवीण जी के लिए मैं खास तौर से उर्दू के शब्दों के अर्थ साथ में लिखना चाहती थी. लेकिन, एक छोटी सी बच्ची , मेरी प्यारी दोस्त है, उस ने ये आर्टिकिल पोस्ट करते समय मैसेज कर कर के मेरी मुसीबत कर डाली….
“देर हो गयी है, …..अब कितना लिखें गी……., खाना खा लीजिये……….., तबियत ख़राब हो जाएगी….आप की शिकायत अंकल से करुँगी…..आदि आदि..” तो मैं ने सोचा कि बाद में लिख दूंगी…लेकिन तब तक शिकायत आ ही गयी…
क्षमायाचना सहित….
नासेह…….उपदेशक, ** बावफा……..वफादार, ** चारासाज़….चिकित्सक , ** वस्ल……….मिलन,* * फुरकत……..जुदाई, **जरासीम……रोगाणु, बैक्टीरिया, ** अहबाब……..दोस्त, ** रोज़-ओ-अय्याम की गर्दिश…..दिन और रात का चक्र.


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