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दोस्तों,
पिछले कुछ दिनों से “माँ ” पर इतनी चर्चा परिचर्चा हुई कि माँ तो क्या नानी याद आ गयी…
लेकिन बात वही है कि आँखें खोलने से ले कर अभी तक, तन मन की सारी तकलीफें माँ ही दूर करती आयी है तो हमेशा की तरह उस का ही पलड़ा भारी रहा…
कितनी अजीब बात है कि जो खुद एक माँ है, जो बच्चे की हर आह अपने कलेजे पर सोखती है, बच्चे के एक एक आंसू को मोतियों की तरह चुनती है, जब उसे दर्द हो, कोई तकलीफ हो तो वो किस के आँचल में अपने आंसू पोछे??
किस के सीने में अपना मुंह छुपाये ??
कहाँ जाये???
मुझे लगता है सारी बहसबाजी का सिर्फ यही निष्कर्ष है….
“माँ हर इंसान की ज़रूरत है……………खुशियाँ और दुःख साझा करने के लिए………उजालों को खूबसूरत बनाने के लिए और अंधेरों को दफ़न करने के लिए…………..छोटी बातों को बड़ा करने के लिए और बड़ी बातों को दबाने के लिए………….किसी भी उम्र के लिए…………..हमारे अपने स्वार्थ के लिए …………….सिर्फ और सिर्फ अपने लिए…………….मैं क्या बताऊँ किस लिए………………??????”
इस लिए…………
मैं खुद से जब थक जाती हूँ,
वो जाने कहाँ से आती है,
आँखें खोलूं या बंद रखूं,
वो ख्यालों में मंडराती है,
ठन्डे नाज़ुक से हाथों से,
पेशानी को सहलाती है,
दिन भर की धूल से क्या मतलब,
वो प्यार से गले लगाती है,
नाज़ुक हाथों में दो रोटी,
चिमटे से ले कर आती है,
बस एक निवाला और खा ले,
बस ये ही कहते जाती है,
तू इतना क्यूँ थक जाती है,
आ मेरी गोद में सर रख ले,
मैं लोरी एक सुनाती हूँ,
तू सुख की निंदिया में सो ले ,
फिर नींद मुझे यूँ आ जाये,
कि कोई आहट सरगोशी,
मेरे कानों तक न पहुंचे,
न टूटे मेरी बेहोशी,
मैं यूँ ही उस की गोदी में,
ये सारी उम्र बिता डालूं ,
फिर काश कभी सूरज न उगे,
ये सपना बस चलता जाये,
कब कैसे कहाँ खुदा जाने,
वो ठंडा आँचल छूट गया,
सब कुछ पाया पर क्या पाया,
अन्दर अन्दर कुछ टूट गया,
दूधों से रोज़ नहाती हूँ,
पूतों से रहती हरी भरी,
जो सिर्फ मुझी पर छलका था,
वो दूध कहाँ अब पाऊं कभी,
अब जब ममता से भर कर मैं,
बच्चों को गले लगाती हूँ,
लगता है यूँ मैं उन में हूँ,
और मेरी जगह मेरी माँ है,
सुनने को कान तरसते हैं,
ओ मेरी गुड़िया ओ रानी,
आ झूल जा मेरे काँधे पे,
ले देख मैं क्या ले कर आया,
वो चूड़ीदार पैजामे और,
वो मीठे बिस्किट का डिब्बा,
इस बड़े महल में दफन हुआ,
वो मेरे बचपन का झूला,
अब एक अँधेरे कमरे से ,
बाहर आने में डरती हूँ,
डर कर कहीं जो मैं चीखूँ,
कौन पूछेगा ,”क्या हुआ हाय!!”
ये कुत्ते, बन्दर और सूअर,
ये कीड़े जिनका नाली घर,
चिपके हैं माँ की छाती से,
मैं कमनसीब उन से बदतर,
सारे सुख हैं पर चैन कहाँ,
बेआरामी संग चलती है,
बस इसी लिए ये ख्वाहिश एक,
अन्दर ही अन्दर पलती है,
जिस तरह से रात की नींदों में,
सपने आ कर सुख देते हैं,
मैं कब्र में भी सपने देखूं,
और मेरी माँ लोरी गाये..
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