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मनुष्य बड़ा ही स्वार्थी जीव है. धरती पर पाँव रखते ही स्वार्थ सिद्धि शुरू कर देता है. भूख, प्यास, और नींद के प्रकृति प्रदत्त स्वार्थ से शुरू हुआ यह सफ़र धीरे धीरे लिप्सा की ओर बढ़ता जाता है. यहाँ तक कि परोपकार करते समय भी इंसान के मन में परलोक सुधारने का स्वार्थ रहता है.कुछ भी करते ही बदले में कुछ पाने का हिसाब किताब शुरू हो जाता है.
पढ़ाई ज्ञान के लिए नही बल्कि नौकरी के लिए……ज्ञान संसार के लिए नही बल्कि डिग्री के लिए….डिग्री विनम्रता के लिए नही बल्कि घमंड के लिए…
इतना ही नहीं ,व्यक्ति गत साज-ओ- सामान एकत्र करने की लिप्सा, अपनी वस्तुओं को सजाने की चाह , अपनी भावनाएं सर्वोपरि , हर बात में सिर्फ “मैं”….दूसरे किसी की कोई गुंजाईश नहीं….
मैं भी इंसान हूँ इसलिए स्वाभाविक रूप से स्वार्थी भी हूँ . लालची भी हूँ. …साथ ही .लोग कहते है कि मैं पागल भी हूँ…
मुझे स्वार्थ है कि अगर मैं किसी को प्रेम , स्नेह या सम्मान दे रही हूँ तो मुझे उस के प्रतिफल में कम से कम पारदर्शी व्यवहार मिले. मैं किसी की भावनाओं का आदर करती हूँ तो वो मुझे बेवकूफ समझ कर मेरा शोषण न करे. मैं यदि किसी की ज़रूरत पर काम आती हूँ तो वो मुझे फालतू इंसान न समझे…..
मुझे लालच है कि मैं अपनी तरफ से अपने परिवार, बच्चों या समाज के ऊपर जो कुछ भी निवेश कर रही हूँ, मुझे उस का पूरा पूरा लाभ मिले….(निवेश संस्कारों और सेवाओं का भी होता है, और उस का लाभ मानसिक शांति के रूप में मिलता है, ऐसी मेरी सोच है , शायद गलत भी हो सकती है. )
मैं पागल हूँ ऐसा लोग कहते हैं क्यूँ कि मैं तत्व मीमांसा करती हूँ. पानी बचाती हूँ. तेल , पेट्रोल और गैस की बचत करती हूँ. अपनी प्लेट में अनाज का आखिरी दाना तक खा लेती हूँ . रास्ते में खुले हुए सार्वजानिक नल बंद करती हूँ. मंदिर मस्जिद चर्च और गुरूद्वारे के सामने समान श्रद्धा से सर झुकाती हूँ. किसी को कष्ट में देखती हूँ तो भरसक सहायता करने की कोशिश करती हूँ.शायद इसी लिए पागल कहलाती हूँ.
एक और भी पागलपन है वो है किसी चीज़ को उस के अंतिम अणु तक प्रयोग करना…….मैं किसी सैशे को उल्टा लटकाती हूँ, नए साबुन पर पुराना साबुन चिपकाती हूँ या अपने कपड़ों, जूतों को बरसों बरस तक सम्हाल कर रखती हूँ तो उस के पीछे किसी किस्म की कंजूसी नही बल्कि उसे बनाने वाले अज्ञात कारीगर की मेहनत के प्रति संवेदना व सम्मान की भावना छिपी होती है .. अब इसे सनक या कंजूसी कहा जाये तो मैं कहाँ तक सफाई देती फिरूँ……
इसी पागलपन के तहत एक और विचार मेरे मन की गहराइयों में उथल पुथल करता है कि जिस देह को हम जीते जी संवारते हैं उस मिटटी की देह की आयु ही क्या है????इधर हमारी आँख बंद और अगले ही पल शरीर के ऊपर किया गया सारा निवेश बर्बाद…..
गीता में श्री कृष्ण ने कहा है …
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरो अपर्णाय , यथा शरीराणि विहाय जिर्नान्यन्यानी संयत नवानि देहि “
लेकिन मेरे मन का लालच कहता है कि अगर हमारा शरीर भी आत्मा की तरह चोला बदल ले तो उस की आयु हमारी आयु से ज्यादा हो सकती है…
आधुनिक विज्ञानं के युग में अब ये असंभव भी तो नही है. “देह दान ” के द्वारा हम अपने शरीर के कुछ अंगों की आयु अपने शरीर की आयु से भी ज्यादा बढ़ा सकते हैं ……
ज़रा सोच कर देखिये….वो दिन भी क्या दिन होगा जब कि हम अपनी खुद की आँखों से अपनी फोटो पर सजे हुए ताज़े फूलों की माला देखें…
या हमारा दिल हमारे अपनों के लिए , हमारे बाद भी धड़कता रहे….
हमारी किडनी , हमारा लीवर , हमारा खून , जिसकी हम जीते जी सुरक्षा करते रहे , वो हमारे बाद भी सुरक्षित रहे….
मेरी हार्दिक इच्छा है कि अपने बाद , अपनी देह का दान करूँ…
काफी बरसों पहले, जब मैं सिर्फ बीस साल की बच्ची थी , तब मैं ने अपनी आँखें डोनेट कर दी थीं , इलाहाबाद के उस अस्पताल का कार्ड आज भी मेरे पास सुरक्षित है, लेकिन उस पर अंकित मात्र चार अंकों के टेलीफोन नंबर का अब शायद कोई अस्तित्व न होगा …..
अब, जब कि मुझे अपने फैसलों पर अपने परिवार वालों की , विशेषकर पति महोदय की स्वीकृति की ज़रूरत होती है, मैं “देह दान ” के फैसले के लिए अभी किसी को राज़ी नही कर पाई हूँ…शायद वो लोग इसे कोई अशुभ संकेत मानते हों, या जो भी उन की सोच हो, मुझे विश्वास है कि एक न एक दिन मैं अपनी बात समझा सकूँ गी , और अपने शरीर के अंगों को अमर करने के अपने स्वार्थ में सफल रहूँ गी…..
मेरा ब्लड ग्रुप AB (-) है, जो कि पुरे विश्व में केवल 3 % ही पाया जाता है. आज इस मंच के माध्यम से मैं यह निवेदन करना चाहती हूँ कि यदि किसी भी समय किसी इमरजेंसी में, इस ग्रुप के रक्त की आवश्यकता हो तो मुझे निसंकोच बताएं . यदि मेरे थोड़े से योगदान से किसी का जीवन बच सके तो मैं अपना जन्म सफल मानूँ गी….
इस विषय पर इसी मंच पर काफी पहले मैं ने एक कविता पोस्ट की थी जो न जाने क्यूँ किसी का ध्यान आकर्षित न कर पाई. आग्रह करती हूँ कि आप इसे पढ़ें और बताएं कि मैं सही हूँ या गलत….
बहुत खुबसूरत हैं मेरी आँखें,
मुझे क्या पता था, तुम्ही ने कहा था,
कहा था कि इन से सिर्फ मुझे ही देखना,
और मैं देखती रही…
मेरा ये दिल,
तुम्हारी ही आह्ट से धड़कता था,
मुझे एहसास भी न था,
तुमने बताया तो हाँ मुझे सच लगा,
मैं महसूस करती रही….
रगों में दौड़ा किया लहू,
ताकि मैं जी सकूँ, रह सकूँ तुम्हारे लिए,
क्यूँ कि तुम न रह सको गे मेरे बिना,
तुमने ही तो जताया था,
देखो मैं जीती रही..अभी तक….
लेकिन क्यूँ????
क्यूँ सिर्फ तुम्हारे लिए???
क्या हो अगर ये आँखें देखें किसी और को?
दिल की धड़कन और लहू की रवानी, हो जाए किसी और की???…
हाँ, मैं ने सोचा है,
कर लिया है पक्का इरादा,
अपना सब कुछ अब देना चाहती हूँ किसी और को….
नहीं ले जाऊ गी कुछ भी अपने साथ,
खाक न होने दूं गी चिता की आग में,
तुम्हे छोड़ते ही होना चाहती हूँ किसी और की…
जैसे इतना किया बस आखिरी एक और वादा,
जाने देना मुझे अस्पताल श्मशान जाने से पहले….
मेरी आँखों की मेरे दिल की मेरे सब कुछ की,
ताकि हो उम्र मेरी उम्र से ज्यादा..
हज़ार साल जिए ये मेरे बच्चो की तरह,
जैसे कलेजे के टुकड़े वैसे देह का टुकड़ा!!!
क्या हसीं होगा नज़ारा कि जब मैं देखू गी,
अपनी आँखों से और महसूस अपने ही दिल से,
अपनी फोटो पे सजी ताज़े गुलाब की माला,
करूँ गी याद कहीं दूर गगन में छुप कर,
अपनी झुकी गर्दन और तुम्हारी जयमाला….
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