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ज़िन्दगी एक मौसम की तरह है. कभी धूप, कभी छाँव, कहीं बारिश की झड़ी तो कभी सूखे पतझर का आलम…
मुझे जिंदगी को हमेशा पॉजिटिव नज़रिए से देखना पसंद है. … हाँ होता है, कभी कभी ऐसी घनी बदली छाती है कि लगता है अब कभी उजाला होगा ही नहीं….लेकिन कुदरत का नियम है, एक के बाद दूसरा मौसम आता जाता रहता है..सूरज चाँद को भी ग्रहण लगते हैं..लेकिन धरती रुक तो नहीं जाती ना….उसी अँधेरे में डूबी अपनी चाल से चलती रहती है….और उजाले की तरफ बढती चलती है…रात और दिन..दिन और रात..बरसो बरस….. और बस अगला चक्र शुरू हो जाता है, नयी जिंदगी सर उठाये आकाश का मुंह चूमने को बेक़रार नज़र आती है…
ऐसे ही किन्ही हारे, थके पलों में इस कविता का जन्म हुआ था जो आज आप के साथ बाँटना चाहती हूँ….
जिंदगी आ तुझी से प्यार करूँ……….,
मुझको तेरा ख्याल न आया कभी,
जब के तू ने ही कुछ नहीं चाहा,
तू मेरे साथ साथ चलती रही,
मैं भटकती रही यहाँ और वहां,
ज़िन्दगी एक तू ही तो साथ रही,
मैं जब भी टूट गयी,हार गयी,चूर हुई,
वो मेरे कौन थे जो छुट गए मुझ से कहीं,
या मेरे माथे पे नाम किसका सजता है,
कोई सवाल कोई शर्त न रखी तू ने,
मैं कोसती रही तुझको पागलों की तरह,
तू मुझे साँस आस देती रही,
मैं तुझ को देती रही मरने की दुआ,
जिंदगी तू ने क्यूँ न छोड़ा मुझे,
देख सारे के सारे छोड़ गए ,
अपनी शर्तों के साथ आये थे,
अपना सामान ले के लौट गए,
मगर भला हो तेरा, माफ़ मुझ को कर देना,
तुझी को साथ में चलना होगा,
थोड़े से काम हैं निपटा लूँ ज़रा,
जैसे इतना किया है सब्र ज़रा और ज़रा,
कोई बदकारी थी उस जन्म की जो काटी है,
अब इस जन्म में न हो कर लूँ इन्तेजाम ज़रा,
देख तू ने दिया है हाथ दोस्ती के लिए,
तो दोस्त बन के मेरे दिल की बात पढ़ लेना,
तू ज़रूरत है मेरी अब ये जानती हूँ मैं,
इसी तरह से ज़रूरत पे साथ साथ रहना,
छोडो ये किस्सा अब जो मुझ से हुआ जाने दो,
अब तो तू है मेरी और मैं तेरी रहूँ गी सदा ,
तू मेरे साथ जी है मैं मरुँ गी साथ तेरे,
खूब गुज़रे गी जब मिल बैठें गे अभागे दो,
हुए बहुत अब इस के उस के शर्त-ओ-करार,
क्यूँ न बेशर्त तुझ से प्यार करूँ,
ज़िन्दगी आ तुझी से प्यार करूँ……….
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