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यह कविता मैं ने खुद पर खीझ कर कुछ दिनों पहले लिखी थी.
न जाने क्यूँ मुझे “बादल ” का कांसेप्ट बहुत पसंद आता है. फुर्सत के पलों में मैं अपने आप को बादल से कम्पेयर करती हूँ तो कुछ भी अलग नहीं लगता. जैसे किसी की परेशानी में उसे कंसोल करना , या कभी न ख़त्म होने वाला असीमित जल -चक्र. मुझे लगता है कि जैसे धरती की आँच पा कर बादल पैदा होते हैं ,इसी तरह दुखों , कष्टों की ज्वाला मुझे खुद ही बादल बनने को प्रेरित करती है, और फिर थोड़ी सी “बारिश” के बाद फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है, ….हालाँकि अपने इस स्वाभाव के कारण कभी कभी मुझे परेशानियों का सामना भी करना पड़ता है , लेकिन मैं ऐसी ही हूँ तो हूँ, क्या कर सकती हूँ….
बादल तो ख़त्म हो जाते हैं लेकिन विरल रूप में वातावरण में होते हैं और तपिश पाते ही फिर से घनीभूत हो जाते हैं…बरसने के लिए…..जलती धरती को राहत देने के लिए….चाहे खुद बिखर जायें……
इसी क्रम में मैं ने कई बार अपने सह ब्लोगरों को कभी अपने लेख में कुछ निराश या हताश देखा तो “बादल ” बन कर खुशहाली लाने की बात कही, और खुस्किस्मती देखिये कि “आनंद प्रवीण” जैसे होनहार कविताकार ने मुझे बहन मान कर मेरी बातों को मीठी नोक झोंक समझा.
भैया आनंद प्रवीण, आप मेरी बात का मतलब नहीं समझे. आप ने कहा कि कड़ी धूप है अर्थात कठिन समय है तो मैं ने कहा कि चिंता मत करिए, जब तक “बादल “के रूप में मैं मौजूद हूँ , तब तक आप को हरियाली के लिए चिंता करने की ज़रूरत नहीं है….
समझ में आया……
अब मेरी कविता पढ़िए….
हम तो बादल हैं बरसना हमारी फितरत है,
कोई चाहे या न चाहे बरसते जाते हैं,
जैसे पागल कोई अपनी ही किसी धुन में हो,
बेवजह हँसे और रोये जाता हो,
जलती धरती पुकारती है हमें,
और हम भी तो दौड़े आते हैं,
और जब आ गया बीमार को क़रार,
सूखे पेड़ों पे सब्ज़ पत्ते उगे,
मिला सन्देश ये कि अब चलो कूच करो,
इस से ज्यादा की ज़रूरत नहीं है माफ़ करो,
चले न जायें तो अब क्या करें, कैसे रुकें,
कैसी बिजली सी तड़प जाती है ये किसको पता,
खुद अपने आप से टकराव है नसीब मेरा,
टूट जाते हैं बिखर जाते हैं,ये किस को गरज,
फिर भी पागल हैं कैसे, ख़त्म कभी होते नहीं,
जानते हैं कि फिर आयेगा धूप का मौसम,
आँच उठ्ठे गी तपिश बेहिसाब सुलगे गी,
यही धरती यही पत्ते आवाज़ दें गे हमें,
और हम तो बादल हैं..
पागल हैं चले आयें गे..
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