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कभी कभी इंसान को पता भी नहीं होता है कि सामान्य सा शुरू होने वाला एक दिन ज़िन्दगी बदल कर रख सकता है.मुझे भी क्या पता था…
रोज़ की तरह “दैनिक जागरण” उठाया तो उस में प्रकाशित एक लेख ने मेरी आत्मा को हिला कर रख दिया. घटना लगभग दस साल पहले की है….
जुलाई २००१ में “दैनिक जागरण” ने तैवान में प्रचलित मानव भ्रूण के व्यंजनों का ब्यौरा प्रकाशित किया था.प्लेट में परोसे गए चार माह के संपूर्ण विकसित भ्रूण के छोटे छोटे हाथ पैर, नन्ही नन्ही उंगलिया, छोटी सी देह … जैसे मुझे देख कर किलकारी भर रही हो …देख कर मैं दो बच्चो की माँ, अंतरात्मा तक काँप उठी. मुझे लगा कि यह प्रचलन तो किसी भी देश में हो सकता था और यह बच्चा मेरा भी तो हो सकता था…..
मनुष्य जाति कि यही तो महानता है कि वो कमज़ोर की कमजोरी से अपनी शक्ति बढाता है……
मैं ने सोचा कि अगर इसी तरह किसी बेबस की बेबसी को अपने स्वार्थ के लिए उपयोग किया जाता रहा तो एक वो दिन भी आये गा कि घर से बाहर निकलने वाले हमारे छोटे छोटे नाज़ुक बच्चे लौटें गे या किसी दरिन्दे का भोजन बन जाएँ गे, इसका भी कोई भरोसा ना होगा…..मनुष्य कि भूख कहा तक पहुंचे गी इसका क्या ठिकाना?
आज बकरा, मुर्गा, फिर इंसान के अजन्मे बच्चे, फिर पैदा हो चुके शिशु, मासूम भोले बच्चे….इस कड़ी का तो कोई अंत ही न होगा…
इस घटना का मुझ पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि मैं ने नॉन वेज भोजन खाना बिलकुल छोड़ दिया. लोग मुझ पर हँसते हैं कि ” सत्तर चूहे खा कर बिल्ली हज को चली” तो मैं भी हंस कर कह देती हूँ कि …….
“जब जागे तभी सवेरा”
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